IGNOU MHI 4 Solved Free Hindi Assignment 2022- Helpfirst

MHI 04

भारत में राजनितिक सरंचनाए

MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

MHI 04 Free Assignment In Hindi jan 2022

प्रश्न 1. प्रारंभिक ऐतिहासिक काल में तमिलकम् में विकसित हुए मुखियातंत्रों की प्रकृति की चर्चा कीजिए।

उत्तर तमिल वीर साहित्य के अध्ययन से हमें तमिलकम में मुखियातन्त्रों की प्रकृति के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। इसका मुख्य कारण यह है | कि मुखियातन्त्र की संरचना और तमिल वीर साहित्यिक परम्परा का जन्म एक ही साथ तमिलकम में हुआ था।

अशोक के शिलालेख जो तीसरी सदी ई. पू. के हैं, में सतियापुत अतियमान के साथ-साथ तमिल क्षेत्र में प्रमुखों, जैसे चेर, चोल, पाण्ड्य (केरलपुटा चोड़ा तथा पाण्ड्या ) का भी वर्णन है। तमिल मुखियातन्त्र दूसरी सदी ई.पू. से ही अस्तित्व में था, जो तीसरी सदी के अन्त तक कायम था,

इस बात की पुष्टि तमिल वीर साहित्यिक रचनाओं, तमिल, ब्राह्मी अभिलेखों तथा यूनानी और रोमन भूगोलशास्त्री (टाल्मी एवं टिलनी) में वर्णित तथ्यों से होती है। मुखिया तंत्रों की सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया के पुरातत्त्वीय प्रमाणों से हमें पता चलता है कि पहली ई.पू. सहस्त्राब्दी के मध्य में लोहा प्रयोग करने वाली संस्कृति थी,

जिसकी प्रमुख विशेषता महापाषाणी स्मारक हैं। महापाषाणी कब्रों तथा तमिल वीर काव्यों से सम्बन्धित दस्तावेज एक साथ ही पाए गए हैं। इन दोनों संस्कृतियों को एक-दूसरे से अलग किया जा सकता है।

इस काल में लोग अपने जीवनयापन के लिए समान सांस्कृतिक प्रथाओं द्वारा आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। मुखियातन्त्रों का सत्ता के विभिन्न स्तरों का वर्णन कविताओं में पाया जाता है।

इससे यह भी पता चलता है कि सत्ता का बँटवारा छोटे तथा बड़े समूहों के बीच में था। इनमें से कुछ का स्वरूप सरल तथा कुछ का जटिल था। वीर कविताओं से यह भी पता चलता है कि मुखियातन्त्र तीन प्रमुख प्रणालियों किलार, वेलिर और वेन्तार में विभाजित थे।MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

किलार प्रमुख वेतार तथा कुरावर वंश के थे, जो आखेटक प्रमुख हुआ करते थे। इसी तरह वेलिर प्रमुख भी वेतार अथवा कुरावर आखेटक प्रमुख हुआ करते थे। कुछ किलार प्रमुखों के नियंत्रण में कृषि भूमि थी और इसी कारण वे साधनसम्पन्न भी थे। किलार खेतिहर बस्तियों में निवास करते थे।

वेलिर प्रमुखों की जो सत्ता थी, वह सबसे पुरानी थी और साथ-ही-साथ वंश परम्परा के प्रति प्रतिबद्ध भी थी। कावेरी तथा वैगाई की घाटियों के बीच एक अर्द्धशुष्क क्षेत्र था जिसमें पारम्परिक पाँच वेल थे।

इनमें से एक उरूनको वेल नाम के प्रमुख का वर्णन एक कविता में वेतारकोमन (वेतार प्रमुख )के रूप में मिलता है।

प्रमुखों की लम्बी पीढी में इसका स्थान उनचासवीं पीढी में था। कविताओं से ही पता चलता है कि वेलिर प्रमुखों का नियंत्रण करिन्जी और मुल्लई नामक चरागाही पहाड़ी भू-क्षेत्रों पर भी था।

वे वेतार, इटैयार तथा कुरेवार वंश समूहों के पहाड़ी क्षेत्रों के भी प्रमुख थे। कविताओं से पता चलता है कि ज्वार-बाजरा से सम्पन्न पहाड़ी क्षेत्र के प्रसिद्ध मुखियातन्त्र इस प्रकार थे वेंकटमलाई, कान्तिरमलाई, मुतिरामलाई, कुटिरामलाई, पराम्पूमलाई, पोटिभिमलाई, पयरमलाई, एलिमलाई तथा नाजिलमलाई।

केरल का सर्वाधिक प्रसिद्ध पहाड़ी मुखियातन्त्र एलिमलाई था। नन्नान, वेतार प्रमुख तथा वंशक्रम के कान्तिरमलाई के प्रमुखों से पारिवारिक सम्बन्ध थे। केरल की दक्षिणी सीमा के पोतिभिमलाई के साथ एक अन्य मुखियातन्त्र के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था।MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

कविताओं में अय की यशगाथा कुरवारपेरूमकन के रूप में की गई है। पोटीइमलाई पहाड़ी क्षेत्र का शासक एक कुरवार प्रमुख था और इस क्षेत्र में मधु, कटहल, हाथी तथा बन्दर आदि पर्याप्त मात्रा में विद्यमान थे।

अन्य प्रमुख को मावेल या महान वेल भी कहा जाता था और ये लोग अन्य परिवार से सम्बन्धित थे। जिस शब्द का सम्बन्ध चरवाहों से था और उसके प्रमुखों का यह भी कहना था कि वे वृस्मी कुल से भी सम्बन्ध रखते थे लेकिन इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि वे चरवाहों के प्रमुख थे।

परम्पुमलाई पारी का प्रमुख था, ओरी कोल्लिमलाई के प्रमुख थे। काटि ओरि को मारकर उस पहाड़ी क्षेत्र का प्रमा बन गया। इलिनी कुटिरमलाई और पेकन का प्रमुख था।

वनमलाई के प्रमुख का नाम कुमानन तथा मुतिरामलाई का प्रमुख सभी वेतार या कुरावर आखे. प्रमुखों में सबसे प्रसिद्ध प्रमुख थे। कुछ जगहों पर पहाड़ी प्रमुखों को वेतुवर के नाम से जाना जाता है।

लेकिन सभी वेलिर पहाड़ी क्षेत्र के प्रमुख नहीं थे, जैसे कि इलिनी, वेतारू का प्रमुख एक वेल था, जिसके नियंत्रण में नीचे की कृषि भूमि थी।MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

चेर, पाण्ड्य और चोल नामक तीन प्रमुख वंशों का प्रतिनिधित्व करने वाला ‘वेन्तार’ समूह राजनैतिक सत्ता का दूसरा वर्ग है। इन तीनों को कविताओं में मुवेन्तार अथवा मुवार नाम से भी जाना जाता है।

कविताओं में ही यह भी वर्णित है कि उनके केन्द्रीय क्षेत्र क्रमशः करूर, मदुराई और उरऐमूर थे तथा परिसीमा के सामरिक स्थल क्रमश: मुचिरी, कोरकाई और पुहार थे। समुद्र के पश्चिमी घाट के कुरिन्जी क्षेत्र चेरों के नियंत्रण में थे।

इसी तरह तमिलकम का दक्षिणी केन्द्रीय क्षेत्र का मूल्लई, पलाई और नेइतल भू-भाग पाण्ड्यों के नियंत्रण में था तथा मारूतम नरीवाला घाटी क्षेत्र जो कावेरी के नाम से जाना जाता था, चोलों के कब्जे में था।

उस काल में भूमियों के सीमांकन की कोई स्पष्ट धारणा विकसित नहीं हुई थी और कविताओं से भी यह जानकारी नहीं प्राप्त होती कि प्रत्येक के अधिकार में वास्तव में कितना क्षेत्र था।

बाहरी सीमा तक पहुँचना अधीनस्थ प्रमुखों के अधीन था। सीमा से बाहर इनका प्रभाव कम हो जाता था या फिर घटता-बढ़ता रहता था।MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

कविताओं में उनके पारिस्थितिकीय क्षेत्रों के अनुसार चेरों को ‘कनक नातन’, जिसका अर्थ होता है नातुवन प्रमुख अथवा ‘मलाईयन’ जिसका अर्थ होता है मलाई, पहाड़ी प्रमुख भी कहा गया है।

एक कवि ने अपनी भावना को व्यक्त करते हुए ‘चेरामन कोटाई मारपन’ की प्रशंसा में एक कविता की रचना की, जिसमें वह यह जानने को उत्सुक है कि प्रमुख को वास्तव में किस प्रकार सम्बोधित किया जाए।

उसके पास ‘मारूतम प्रदेश’ होने के कारण उसे ‘नातन’ कहा जाए, या उसके पास कुरिन्जी प्रदेश होने के कारण उसे ‘उरा कहा जाए या फिर उसके पास तटीय प्रदेश होने के कारण ‘चेरापन’ कहा जाए।

इन बातों से इस तथ्य का पता चलता है कि चेरों का क्षेत्र अनेक पारिस्थितिकीय क्षेत्रों का मिश्रित रूप था, जहाँ पहाड़ और वन अधिक मात्रा में पाए जाते थे। इसी कारण चेरों का संसाधन आधार भी विविधतापूर्ण था और बन सम्पत्ति मुख्य संसाधन थे।MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

इसी तरह एक कविता में चेरन ,कुटुवन के पहाड़ी उत्पाद (मलाईतरम) तथा समुद्रीय उत्पाद (कट-अर्रअरम) और स्वर्ण का वर्णन है, जो नौकाओं द्वारा तटों पर लाया जाता था। पाण्ड्यों का भू-भाग ‘ मिश्रित पारिस्थितिकीय क्षेत्र था, जिसके अधिकांश भागों में चरागाह तथा तटीय भू-भाग था।

एक पाण्ड्य समूह का प्रमुख स्वयं को अनेक संसाधनों देश (यानार मय्यार कोमान) का प्रमुख मानता था। चोल जो कविताओं में ‘काविरि किलामन’ के नाम से जाना जाता है, की भूमि ‘कावेरी’ के मुहाने डेल्टा में थी और यह भमि धान और गन्ने से सम्पन्न थी।MHI 04 Free Assignment In Hindi

‘वेन्तार’ श्रेणी के जो प्रमुख थे, वे संसाधनों को भेंटों और भुगतान के रूप में प्राप्त करते थे। ऐसी मान्यता है कि प्रारम्भ में वसूली का तरीका लूटपाट था।

अधीनीकरण की प्रक्रिया में ऐसा प्रतीत होता है कि तीन विभिन्न प्रक्रियाओं को प्रयोग में लाया जाता था अधीनता, निष्कासन और वैवाहिक सम्बन्ध।

कविताओं में वर्णित आलेख से यह ज्ञात होता है कि इन विधियों का प्रयोग वेन्तार क्षेत्र के विस्तार के लिए किया जाता था। कविता में ही वर्णित उल्लेख के अनुसार मान्जिनमलाई का प्रमुख वेल्लुवन चेरों के अधीन था और उसे सैनिक सहायता प्रदान करने का दायित्व सौंपा गया था।

इसी प्रकार पसारमलाई और वेलारू के प्रमुख भी चेर के अधीन थे। इसी प्रकार नलई का किलावन जो नाकन था, उसे नाम्जी नेतुनसिलियन को सैनिक सहायता देने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी और वह पाण्ड्यों के अधीन था।MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

कुछ कविताओं में इनाती (सेनापति) विरुनकुट्टवन, इनाती तिरुम्किल्ली तथा इनाती तिरुकानान की चोलों के इनाती के रूप में प्रशंसा मिलती है। ‘पन्नम’ चिरकटी के किलान तथा अरूवन्ताई, अय्यार को सैनिक सहायता देने का दायित्व दिया गया था। वे भेंट देने के लिए भी मजबूर थे।

वे चोलों के अधीन थे। कभी-कभी छोटे-छोटे समूहों के प्रमुख जो सीमान्त पर निवास करते थे, वेन्तार वंशों जैसे चेर एवं पाण्ड्य के अधीन रहने के लिए विवश होते थे। काव्यों में यह भी वर्णित है कि अधीनस्थ प्रमुख वेन्तार अपने संसाधनों का एक भाग भेंट (तिरई या कोल) के रूप में अदा करते थे तथा तभी वे निडर रहते थे।

चेरामन चेलवाकाटुन्कों बहुत-से मन्नारों से तिराई प्राप्त करता था। लेकिन फिर भी ऐसा लगता है कि वेन्तार को अक्सर तिरई वसूलने के लिए बहुत-से प्रमुखों की बस्तियों पर हमला करना पड़ता था।

चोलों के विषय में तो यह प्रकट ही है कि वह वेन्तार कुटिमक्कल से धान (पुरावु) वसूली करता था। कविताओं में इसी कारण तीनों वेन्तारों को इरेवन अर्थात् निचोड़ने वाला कहा गया है।

इसका अर्थ यह है कि वेन्तार लोगों से उनके क्षेत्रों की संसाधन क्षमता के अनुसार जमकर वसूली करते थे, जिसे ‘कर’ कहा जाता था MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

वेन्तार आदान-प्रदान के सम्बन्धों से प्राप्त संसाधनों के कारण स्वर्ण और अमूल्य वस्तुओं के मालिक थे। लेकिन यह बात स्पष्ट नहीं है कि वे विनिमय प्रक्रिया में किस तरह शामिल हुए।

कविता से पता चलता है कि वेन्तार का प्रमुख काम संसाधन जुटाना तथा उसका प्रयोग सामाजिक सम्बन्धों के निर्धारक प्रतिमान के अनुसार पुनर्वितरित करने का था।

लूटपाट करना उनके लिए अनिवार्य था, क्योंकि उनका पुनर्वितरण तंत्र बहुत ही विस्तृत और जटिल था। बहुत बड़ी संख्या में उनके नातेदार (किलाइनार), विद्वान चारण (पुलावर), योद्धा प्रमुख (मारावार, किलार एवं मन्नार), योद्धा लोग (मारावार), भाट, जादू-टोना तथा धार्मिक कार्यकर्ता आदि उन पर आश्रित थे।

वेतची (पशुओं के लिए हमला), करनताई (पशुओं की वसूली), वनजी (प्रमुख, द्वारा हमला), कांगी (प्रमुख द्वारा हमलों का प्रतिरोध) तथा तुमपाई (हमले के लिए तैयारी) आदि के विषय में जो कविताओं में प्रतीकात्मक वर्णन है, उससे पता चलता है कि लूटपाट एक सामान्य घटना थी, और यह एक संस्था का रूप ले चुकी थी।

इसका कोई प्रमाण नहीं है कि वेन्तार के पास अपनी कोई सेना या योद्धा थे, लेकिन उनके पास लड़ाकू वंश के पर्याप्त लोग थे। आवश्यकता पड़ने पर नगाड़ा बजाकर इन्हें युद्ध के लिए तुरन्त जुटा लिया जाता था।

इनाती शब्द का प्रयोग चारणों द्वारा काव्यात्मक विधा के रूप में किया गया है। प्रमुखों का एकमात्र वंशानुक्रम चेर थे जिनकी प्रशंसा में ‘पाटिरूप्पटटु’ गीतों का संग्रह लिखा गया था। इससे चेर वंशानुक्रम की प्रमुखता स्पष्ट होती है। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

अवाइयम (सभा) कविताओं में वर्णित एकमात्र राजनैतिक संस्था है। यह वेन्तार की एक सहायक समिति के रूप में कार्य करती थी। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समिति के सदस्य मुख्य रूप में योद्धा प्रमुख तथा पुलावर (विद्वान चारण) होते थे।

लेकिन कविताओं में वास्तविकता से अलग भी राजनीतिक प्रणाली की संस्थापित प्रक्रिया के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

जैसे कि कविताओं ने मुवेन्तर की प्राचीन तमिलकम के तीन मुकुट वाले राजाओं के रूप में वर्णन किया था। इसी तरह कवियों ने चेरों की प्रशंसा सात किरीटों की माला धारण किए हए के रूप में की थी। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि वेन्तार की प्रशंसा प्राय: वेल्वी (वैदिक बलि) याजकों के रूप में की गई है।

उनका वर्णन युद्ध की देवी कोररावई एवं मुरुगन के उपासक के रूप । में भी किया गया है। कविताओं में इनकी तुलना वैदिक देवताओं, जैसे सूर्य, अग्नि, मारुत, पंचभूत, नक्षत्रों तथा नवग्रहों के समान की जाती है।

ये तुलनाएँ हमें इतिहास-पुराण परम्परा के लोकपाल सिद्धान्तों की याद दिलाते हैं। चरों की ये विशेषताएँ वैदिक ब्राह्मणवाद के गहरे प्रभाव की प्रतीक हैं। लेकिन इसी तरह वेंटार के सन्दर्भ में बौद्ध विचारों का भी प्रभाव परिलक्षित होता है।MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

कविताओं में वर्णित वैन्तारों की छवि वास्तविकता से बहुत अलग है। इतना निश्चित है कि उनके अधिकारों में सभी तमिलकम नहीं थे और कर प्रा” करने वाले प्रमुख अतियामान जैसे दूसरे प्रमुख भी थे, जो वेन्तार के ही स्तर के बराबर थे।

एक कविता में नेतुमान अन्जी की प्रशंसा में सभी खेतिहर के प्रमुखों को चेतावनी दी गई थी कि यदि उन्हें अपने ‘उर’ को अपने साथ रखना है, तो वे जल्द-से-जल्द तिरई लेकर पहुंचें।

बहुत-से पहाड़ी प्रमुखों ने वेन्तार का जमकर विरोध भी किया था। परम्पुमलाई का ‘पारी’ इसका एक अच्छा उदाहरण है। उसने वेन्तार का सामना डटकर किया था।

यह अलग बात है कि वह युद्ध में हार गया था और मारा भी गया था। इसका अर्थ यह है कि ‘वेन्तार’ भी प्रमुख थे, लेकिन तुलनात्मक रूप में थोड़े ऊँचे थे। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि उस काल का राजनैतिक स्तर राज्य व्यवस्था से भिन्न था। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

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प्रश्न 2. आठवीं से बारहवीं सदी के बीच प्रायद्वीपीय भारत में प्रारंभिक मध्ययुगीन राज्य व्यवस्थाओं की मुख्य विशेषताएँ क्या थी?

उत्तर केन्द्र में राजवंशीय प्रशासनिक तंत्र जैसी संस्था थी, जिसके पास निरंकुश सत्ता का अभाव था। सत्ता के अनेक केन्द्र स्थानीय और विभिन्न स्तरों पर विस्तृत थे।

चेर और चोल राज्यों के अन्तर्गत राजा शीर्ष स्थान पर था तथा सामन्त दूसरे स्थान पर होते थे। इन्होंने चेर, चोल या पाण्ड्य का आधिपत्य स्वीकार किया था। दक्षिण भारत की राजनैतिक पद्धतियों में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।

मुखियाओं के बीच विभिन्न तरह की भिन्नता विद्यमान थी। इनमें से कुछ लोगों का भूमि के विशाल क्षेत्रों पर तथा कुछ लोगों का छोटे भूखंडों पर नियंत्रण था। कुछ मुखिया क्षत्रिय हैसियत का दावा करते थे,

लेकिन अधिकांश मुखिया इतने ज्यादा महत्त्वाकांक्षी नहीं थे। कुछ मुखियाओं की विस्तृत प्रशासनिक व्यवस्था थी, जिनमें अधिकारी तंत्र भी शामिल था, लेकिन औरों के नियंत्रण में सरल व्यवस्था थी।

मुखियाओं के नियंत्रण में सम्मानित साथी होते थे, जो क्षेत्रों में सेना और पुलिस की भूमिका निभाते थे। जरूरत पड़ने पर इनको युवराज के सामने प्रस्तुत किया जाता था।

तकोलन के युद्ध में वालुवंडानु के मुखिया सैनिकों ने उनके चेर अधिराज को सैनिक सहायता प्रदान की। अधिराज मुखियाओं के क्षेत्रों से राजस्व का एक भाग प्राप्त करते थे।

अधिराज और स्थानीय मुखिया के बीच प्राप्ति का वितरण 1:2 के अनुपात में हुआ था। मुखिया और अधिराज के घरानों के बीच सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाने के लिए वैवाहिक सम्बन्धों की स्थापना की जाती थी।

चोलों में स्वामिभक्ति प्रमुख थी। मुखिया राज्य व्यवस्था के अभिन्न अंग बन गए थे, जो राजराजा के समय में मजबूत हुई। लगभग सौ वर्षों के बाद मुखियाओं ने एक बार फिर अपनी पुरानी भूमिका में लौटकर अपनी स्थिति मजबूत की। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

दक्षिण भारत में प्रारम्भिक मध्यकाल में स्थानीय समूह ही वास्तविक आधार थे। राजनैतिक पद्धतियों में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। राजनैतिक पद्धतियाँ | सत्ता का आधार तो नहीं थीं,

लेकिन आधुनिक इतिहास लेखन में यह चर्चा और बहस का विषय बना हुआ है। इनमें से एक प्रमुख संस्था ब्राह्मणों की संख्या थी, जिनके अधीन बड़ी संख्या में कृषि भूमि थी।

इनके विषय में अनेक ऐतिहासिक लेख उपलब्ध हैं। ब्राह्मण गाँवों और उनके मंदिरों में सबसे ज्यादा इस | सम्बन्धित अभिलेख मिलते हैं।

लेकिन जनसंख्या के हिसाब से ब्राह्मणों की संख्या कम थी और वे दूसरी बहुसंख्यक जनता की भूमि का उपयोग करते थे। ब्राह्मणों की खेतिहर बस्तियाँ, तमिल भाषा क्षेत्र में वैल्लानवकाई तथा केरल में ग्राम्मा नाम से जानी जाती थीं।

उर के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है, लेकिन इनका महत्त्व कम नहीं था। अर्थव्यवस्था, समाज और राजनैतिक पद्धति पर इनका विशेष प्रभाव था। _

चोलों की तुलना में पाण्ड्य और चेर के सन्दर्भ में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। इसका मूल कारण यह है कि चोलों से सम्बन्धित अभिलेखों की संख्या पाण्ड्य और चेरों की तुलना में अधिक है।

ऐसा लगता है कि चोल देश में गैर-ब्राह्मण भू-स्वामी समूह भली प्रकार संगठित थे। उनकी शक्ति और अस्तित्व के विषय में किसी भी प्रकार की शंका नहीं की जा सकती।MHI 04 Free Assignment In Hindi

गैर-ब्राह्मण समूहों के संघटन और उनकी कार्यपद्धति के विषय में हुए नए अध्ययन से जानकारी प्राप्त हुई है। इन बस्तियों में आवास स्थल, शवदाह मैदान, पेयजल स्रोत, सिंचाई की नहरें, कृषि भूमि और चरागाह आदि की व्यवस्था थी। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

आवासीय क्षेत्रों में भू-स्वामियों के शिल्पकारों और ग्रामीण मजदूरों की बस्तियाँ थीं। इससे समाज में विद्यमान स्तरीकरण और सामाजिक विभेदीकरण के विषय में जानकारी मिलती है।

कूटी या कुटुम्ब आधारभूत इकाई थी। मजदूर और शिल्पकार इस काल में दक्षिण भारत के मूल उत्पादक थे। उलुकुटी नाम के जो भूस्वामी थे, उनके पास भूमि से सम्बन्धित विशेषाधिकार थे।

ये भू-स्वामी उरार या उरोम नाम से उर की सभाओं में उपस्थित रहते थे। वे सम्पत्ति और गाँव के समूचे समुदाय के हितों के मामलों पर चर्चा करके निर्णय लेते थे।

यह सभा राजा की प्रशासनिक व्यवस्था और दूसरी और निचले स्तर के राजनैतिक ढाँचे के बीच कड़ी का काम करती थी।MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

दक्षिण भारत के प्रारम्भिक मध्यकाल में स्थानीय समूहों में नाडु का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पहले इसे एक स्थानीय समूह के रूप में ही इतिहासकारों द्वारा मान्यता दी गई थी, लेकिन हाल के वर्षों में इसका व्यवस्थित अध्ययन किया गया है। MHI 04 Free Assignment In Hindi

उर की तरह नाडु भी स्थानीय क्षेत्र तथा उसकी सभा के प्रवक्ताओं के प्रतीक थे। इस सभा को नाटर और नाम के नाम से भी जाना जाता था और इसके भी संघटक तत्त्व स्थानीय भू-सम्पत्ति वाले वर्ग थे।

इनकी कोई प्राकृतिक सीमाएँ नहीं थीं। कुछ उदाहरणों के अनुसार नाडु कावेरी के दोनों किनारों पर स्थित थे। इससे यह भी पता चलता है कि खेतिहर बस्तियों में समूह थे। उनके आकार में बहुत भिन्नता थी।

अन्य क्षेत्रों की स्थिति भी इसी संरचना की पुष्टि करती है। पल्लव क्षेत्र में कोट्टम एक बड़ी इकाई थी, जिसके अन्तर्गत नाडु उभरे थे।

इसकी उत्पत्ति चरागाही क्षेत्र में हुई थी, लेकिन कृषि विकास के साथ ही कृषि चरागाही क्षेत्र बन गया। कोट्टम भी नाडु के समान थे। नाडु शब्द का प्रयोग स्थानीय मुखियाओं के लिए किया जाता था। समय के साथ नाडुओं की संख्या में भी वृद्धि हुई।MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

नाडु खेतिहर गाँवों के होने के कारण तथा नाट्टार प्रमुख किसान होने के कारण इनका प्रमुख काम खेती था। वे सिंचाई और खेती से सम्बन्धित अन्य सुविधाएँ भी उपलब्ध कराते थे।

राजा की प्रशासनिक व्यवस्था में करों का भुगतान नाडु राजा द्वारा किया जाता था। नाटुपुप्रावु, नाटुवारी जैसे राजस्व के स्रोतों का वर्णन प्रलेखों में मिलता है। नाडु स्वयं भी अधिकारियों की व्यवस्था करता था।

खेतों के सीमा-निर्धारण, भूमि अनुदानों का कार्यान्यवन, करों का संग्रह तथा उसकी अदायगी, बस्तियों र्स्थापना, राजवंशीय संस्था की ओर से मंदिरों की व्यवस्था तथा उनको मिले दान के प्रबन्धन आदि में नाडुओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

इससे यह प्रतीत होता है कि स्थानीय स्तर पर नाडुओं को राज्य के प्रतिनिधि के रूप में मान्यता प्राप्त थी। नाडु राज्य व्यवस्था के अभिन्न अंग थे। इनका विकास निचले स्तर से हुआ था, लेकिन बड़ी व्यवस्था के साथ ये अच्छी तरह से जुड़ गए थे।

स्थानीय स्तर पर अन्य समूह भी कार्यरत थे। इनमें ब्राह्मदेय या ब्राह्मणवादी गाँवों के विषय में सबसे अधिक वर्णन है। सभाओं के सदस्य भू-सम्पत्ति वाले ब्राह्मण थे, जिनको वेदों और शास्त्रों का पूरा ज्ञान था और ब्राह्मदेय गाँवों की गतिविधियों में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।

इन निकायों की संरचना, कार्यकलाप और अन्य विवरणों से यह पता चलता है कि ये धर्मशास्त्रों में दिए गए आदर्शों का पूरी तरह से पालन करते थे।

इन निकायों का काम बहुत ही व्यवस्थित ढंग से होता था तथा इनके बीच एकता थी। कुछ बिचौलिए थे, जो किसानों और राज्यों के बीच कडी का काम करते थे।

इसी प्रकार के कुछ अन्य निकाय नगरम थे, जो व्यापारी संगठन थे। इनकी संरचना और कार्यकलाप अन्य निकायों की तरह ही थे। दक्षिण भारत के भागो से इसकी जानकारी मिलती है।

इस प्रकार के नगरों में व्यापारी समूह को प्रशासनिक, आर्थिक और न्यायिक अधिकार दिए गए थे। पश्चिमी एशियाई मल के यहूदी ईसाई और मुस्लिम व्यापारी समहों के अतिरिक्त ऐसे ही समूह स्थानीय मूल के व्यापारियों के भी थे पद्धतियों को निर्णायक ढंग से प्रभावित करते थे।

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प्रश्न 3. दिल्ली सल्तनत के अधीन राज्य की प्रकृति का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

उत्तर. मौर्य राज्य के इतिहास के लिए मुख्य स्रोत ‘अर्थशास्त्र’ है, जो कि मौर्य राजा चन्द्रगुप्त के प्रसिद्ध मंत्री कौटिल्य या चाणक्य के द्वारा लिखा गया था। ‘अर्थशास्त्र’ प्राचीन भारत की शासन कला पर आधारित एक ग्रन्थ है। दिल्ली सल्तनत के आरम्भिककाल के विषय में बहुत कम स्रोत उपलब्ध हैं,

क्योंकि इस समय सल्तनत अपनी आरम्भिक अवस्था में थी और इसे स्थिर होने में काफी समय लगा था। दरबार के संरक्षण में ही ग्रन्थ और ऐतिहासिक कृतियाँ लिखी जाती थीं।

इसका अर्थ यह है कि किसी विद्वान को राज्य के विषय में लिखने के लिए सुल्तानों की स्वीकृति लेनी आवश्यक होती थी। इसके बदले में उन्हें पारिश्रमिक दिया जाता था।

दिल्ली सल्तनत राज्य के सन्दर्भ में दो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं पहला लिखित स्रोत फन-ए-मुदस्बिर का ‘आदाब-उल-हर्ब वश शुजात’ है। MHI 04 Free Assignment In Hindi

यह माना जाता है कि इस ग्रन्थ की रचना सुल्तान शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के सम्मान में की गई थी। इस पुस्तक में 40 अध्याय हैं। प्रारम्भ के 12 अध्यायों में सुल्तान के सद्गुणों का वर्णन है, जबकि बाकी के 28 अध्यायों में युद्ध के विभिन्न पहलुओं के विषय में बताया गया है।

मुदस्बिर के ग्रन्थ के अध्ययन से हमें दिल्ली सल्तनत की शुरुआती अवस्था के विषय में पता चलता है कि सत्ता शासक वर्ग के हाथ में होने की बात इसमें उल्लिखित है।

इस काल में मध्य एशिया को मंगोलों से खतरा होने के कारण दरबार के बुद्धिजीवी वर्ग में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई थी।MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है कि किसी शत्रु पर आक्रमण करने या जीतने से पहले सुल्तान विरोधी पक्ष को औपचारिक रूप से इस्लाम कबूल करने के लिए आमंत्रित करे या जजिया कर जो हर गैर-मुस्लिम समुदाय को मुस्लिम शासक को देना होता था,

देने के लिए कहा दूसरे. उनका कहना है कि अगर किसी मुसलमान शहर पर गैर-मुसलमान आक्रमण करते हैं, तो मुसलमान औरतें तथा दास बिना मुसलमान आदमियों तथा मालिकों की आज्ञा के उसको सरक्षा प्रदान कर सकती है।MHI 04 Free Assignment In Hindi

इन दोनों उदाहरणों से पता चलता है कि राज्य और इसके सिद्धान्त को प्रतिपादित करने वाले सिद्धान्तवादियों की इस बात में गहरी रुचि थी कि किस प्रकार उपमहाद्वीप के गैर-मसलमानों की बडी जनसंख्या पर शासन किया जाए।

इसके लिए पहले शांतिपूर्ण समझौते की बात कही गई है और फिर सैन्यवाद का आक्रामक रास्ता सुझाया गया है।
इस ग्रन्थ में यह भी बताया गया है कि राज्य पर कैसे शासन किया जाए।

राजा और उसके अधिकारियों के कर्त्तव्यों और दायित्वों की व्याख्या हुए मुदस्बिर राज्य के दो स्वरूप बताते हैं दमनकारी व न्यायोचित। पुराने समय से ही न्याय इस्लामी शासकों के महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्यों में से एक रहा है और इसका वर्णन शासन से सम्बन्धित प्राय: सभी ग्रन्थों में मिलता है।

अधिकारियों को भी अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए नैतिक उपदेश दिए गए हैं। लेखक भी चाहता है कि राज्य के अधिकारी जिम्मेदारी के साथ और निष्पक्ष होकर काम करें।

इस समय वास्तव में राज्य जैसी कोई संरचना नहीं थी, बल्कि प्रशासनिक और राजनीतिक एकरूपता के लिए एक प्रक्रिया थी।MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

इस्लामी राज्य के इतिहास में सम्भवतः ऐसा पहली बार हो रहा था कि शासित वर्ग का बहुत बड़ा भाग दूसरी धार्मिक मान्यताओं का अनुयायी था। MHI 04 Free Assignment In Hindi

परम्परागत धार्मिक सलाह के आधार पर लिए गए निर्णय राज्य की राजनीतिक गतिविधियों के कार्यान्यवन के लिए उपयुक्त नहीं थे, ऐसा जिया बरनी की रचनाओं से पता चलता है।

बरनी सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक के दरबार में सलाहकार थे। ‘फतवाए-जहाँदारी उनकी प्रमुख रचनाओं में से एक है, जिसमें 24 सलाहों को क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है।

यह रचना शासन के सही तरीकों के बारे में बताती है और आधुनिक विद्वानों के अनुसार दिल्ली सल्तनत के शासन के बारे में यह पहला व्यवस्थित ग्रन्थ है।

राज्य और शासन के विषय में बरनी के विचारों का मुख्य केन्द्र न्याय है, जिसका पालन करना उनकी दृष्टि में शासक वर्ग का प्रमुख कर्त्तव्य है। शासक वर्ग की सत्ता को कायम रखने के लिए वे चिन्तित दिखते हैं। ये कुलीनों और निम्नवर्गीय लोगों के सद्गुणों एवं अवगुणों रचनाओं में विरोधाभास भी है।

वे एक तरफ मुसलमानों की नैतिकता तथा उच्च वंश के मुसलमानों को महत्त्वपूर्ण शासकीय पद देने की बात करते हैं, लेकिन हिन्दुओं तथा निम्न वर्ग के लोगों को राज्य व्यवस्था में शामिल करने के विरोधी हैं।

इनका यह भी मानना है कि राज्य हमेशा प्रभावशाली शासक वर्ग तथा शासित वर्ग के हित को ध्यान में रखता है।

मुदस्बिर के विपरीत बरनी का विश्वास व्यक्ति के अन्तर्निहित गुणों में नहीं है। वे राज्य के सन्दर्भ में सुल्तान के द्वारा ताकत के उपयोग की अपेक्षा करते हैं, जिससे राज्य का अस्तित्व प्रभावशाली बने। बरनी का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान राज्य कानून है, जो उनकी विशिष्ट अवधारणा है।

बरनी के अनुसार इस्लाम को संरक्षण देने वाला शासक ही आदर्श मुसलमान शासक है और वह काफिरों को दंडित करने की क्षमता रखता है। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

बरनी के अनुसार न्याय का अनुसरण करके सुल्तान पृथ्वी पर भगवान का स्वरूप बनकर रह सकते थे और सांसारिक शासन दैवी आदेश के आधार पर कर सकते थे।

लेकिन राज्य के अस्तित्व को कायम रखने के लिए सुल्तान को विवेक से निर्णय लेना होता था तथा धर्म को वह सख्ती से शासन का आधार नहीं बना सकता था।

बरनी के अनुसार राजनैतिक विवेक और धार्मिक बाध्यताओं के बीच विवाद की स्थिति में राजनैतिक विवेक को ही प्राथमिकता प्राप्त होनी चाहिए।

हबीब के अनुसार बरनी के राज्य और शासन सम्बन्धित विचारों की व्याख्या वैभव तथा शान के प्रदर्शन से प्रेरित थी। वे हिंसा के अत्यधिक प्रयोग के भा विरोधी थे।

इस प्रकार, मुदस्बिर और बरनी के दृष्टिकोणों से यह पता चलता है कि राज्य को अखंडित व्यवस्था के रूप में नहीं देखा गया। इसके विपरीत, राज्य की संरचना एवं प्रक्रिया के रूप में भी इसकी अनेक कार्यप्रणालियों द्वारा अभिव्यक्ति होती थी। कुछ विशेषताएँ एक समान थीं।

उदाहरण के लिए, कर व्यवस्था, परंतु राज्य के दूरस्थ भागों में तैनात अधिकारियों की भूमिका, स्थानीय परिस्थितियों की प्रकृति, अकाल तथा बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाओं का राज्य के स्वरूप निर्धारण तथा अभिव्यक्ति पर प्रभाव पड़ा MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

इसका मतलब यह था कि सत्ता को बनाए रखने तथा प्रभावशाली शासन के लिए कोई भी नीति या तरीका स्वीकार्य था। इस तरह आधुनिक राज्यों से दिल्ली सल्तनत का राज्य बहुत भिन्न था।

आधुनिक विद्वानों ने ग्रन्थों तथा दूसरे प्रमाणों के स्रोतों की सहायता से दिल्ली सल्तनत के अन्तर्गत राज्य की प्रकृति के बारे में वर्णन किया है। सामान्य मान्यता यह है कि दिल्ली सल्तनत ने जो नीव रखी थी, उसी के आधार पर मुगल साम्राज्य अपना वैभव और शक्ति स्थापित करने में सफल हुआ।

मैक्स वेबर ‘इकॉनामी एण्ड सोसायटी’ में दिल्ली सल्तनत को वंशानुगत राज्य कहते हैं।

जैकब रसेल के अनुसार इस राज्य में शासक राज्य पर नियंत्रण के लिए कुछ प्रशिक्षित और भरोसेमंद अधिकारियों पर आश्रित रहता है और वे सब खास प्रशासनिक कार्यों में लगे रहते हैं जैसे कि कर-संग्रह व्यापार एवं वाणिज्य पर नियंत्रण, कानून और व्यवस्था आदि।

हालांकि इस धारणा के लिए पर्याप्त साक्ष्य मौजूद नहीं है। इसी कारण यह धारणा दिल्ली सल्तनत की प्रकृति के बारे में विश्लेषण करने के लिए मान्य नहीं है, जबकि मुगल साम्राज्य की व्याख्या के लिए यह धारणा उपयुक्त है।

स्टैनली लाने पूल, ईश्वरी प्रसाद, ए.बी.एम. हबीबुल्लाह, मुहम्मद हबीब, के.ए. निजामी जैसे इतिहासकार और हाल में पीटर जैक्सन ने दिल्ली सल्तनत को केन्द्रीकृत राज्य माना है। इसकी व्याख्या अभी नहीं की गई है। दिल्ली सल्तनत की स्थापना 1192 ई. में तराइन की दूसरी लड़ाई के बाद हुई थी।

तुर्को ने इस महाद्वीप में पहले लाहौर में और बाद में दिल्ली में अपने आपको स्थापित किया। साइमन डिग्वी के अनुसार यह उनकी उच्च स्तरीय सैन्य तथा संगठनात्मर क्षमता के कारण सम्भव हुआ।

श्रीमती रोमिला थापर का कहना है कि एकता का अभाव और स्थानीय सत्ता की इकाइयों के आपसी झगड़े और साथ निम्नस्तरीय सैन्य तकनीक के कारण 1192 ई. में पृथ्वीराज चौहान की हार हुई।

इसके बाद जिस राजतंत्र का जन्म हुआ, वह ज्यादा स्थिर था। समय के साथ इसके राजनीतिक आधार का विस्तार तथा सुदृढीकरण हुआ। हरमन कुलके के अनुसार राज्य में ऐसा राजतंत्र था, जिसका नेतृत्व एक शक्तिशाली शासक करता था। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

आधुनिक शोध के अनुसार तुर्कों की राजनैतिक व्यवस्था बनी रही और सुदृढ़ होती गई। राज्य किस हद तक केन्द्रीकृत था, इस बात पर आम सहमति नहीं बन पाई है।

इन अध्ययनों से पता चलता है कि इस समय राज्य केवल आंशिक रूप से नौकरशाही से मुक्त था। केन्द्रीय राजनैतिक सत्ता को हमेशा विभिन्न स्थानीय शक्ति समूहों द्वारा चुनौती मिलती थी और राज्य के सुल्तान का समय और संसाधन इन ताकतों को नियंत्रित करने में लगते थे।

साम्राज्य में कुछ सीमा तक केन्द्रीकृत सत्ता थी और जहाँ स्थानीय ताकतों का प्रभुत्व था, उन्हें भी सुल्तान के दरबार का वर्चस्व स्वीकार करना पड़ता था।

सुल्तान को अक्सर विरोधी समूहों के साथ युद्ध करना पड़ता था। केन्द्र राज्य के विभिन्न भागों में अपनी गतिविधियों के द्वारा अपने अस्तित्व को कायम रखता था, जैसे करों की वसूली, वास्तुकला, सड़कों, मस्जिदों का निर्माण और धार्मिक संगठनों और व्यक्ति विशेष को दान और इसी तरह के दूसरे कार्य।

राज्य के अस्तित्व का प्रमुख लक्षण सेना का सल्तनत के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में निरंतर आना-जाना था, जो कि क्षेत्र के विस्तार और विरोधियों के दमन के लिए आवश्यक था। केन्द्रीय सेना जिस क्षेत्र से गुजरती, स्थानीय लोगों को भोजन तथा शरण देकर उसका सत्कार करना पड़ता था।

दिल्ली सल्तनत के कई स्थानीय क्षेत्रों में स्थानीय मुखिया शासन करते थे और दैनिक प्रशासनिक गतिविधियाँ भी परम्पराओं पर आधारित थीं। लगभग 200 सालों के बाद मुगलों के काल में राजनीतिक और प्रशासनिक परिपक्वता के साथ ही सारे साम्राज्य में प्रशासन में एकरूपता कायम हो सकी।

कुछ अन्य रचनाओं में दूसरे दृष्टिकोण से राज्य की प्रकृति के बारे में वर्णन किया गया है। उदाहरण के लिए, स्टीफन कौनरमन ने चौदहवीं शताब्दी के पर्यटक इब्नबतूता की रिहला’ के अध्ययन के आधार पर दिल्ली सल्तनत का आर्थिक विश्लेषण किया है। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

उसने वंशानुगतवाद की विशेषताओं का + वर्णन किया है। कुछ अन्य विद्वानों ने अन्य शक्ति समूहों पर ध्यान केन्द्रित किया है जैसे कि सूफियों के विषय में उनका कहना था कि वे शहर से दूरी पर होते थे।

सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में सूफी मीर शेख निजामुद्दीन औलिया ने अपनी धर्मशाला राजधानी में ही स्थापित की थी।

उपर्युक्त अध्ययन से यह पता चलता है कि राज्य की नीतियों को प्रभावी बनाने के लिए शासकों के लिए यह जरूरी था कि राजनीति को धर्म से अलग रखा जाए। दिल्ली सल्तनत के शासक मुख्य रूप से इस्लाम को गौरवान्वित करना चाहते थे तथा वे क्षेत्र के अन्य धर्मो का दमन करते थे।

लेकिन महत्त्वपूर्ण पदों पर उन्हीं की नियुक्ति की जाती थी, जो धार्मिक कट्टरता में विश्वास नहीं करते थे। धर्म के प्रतिपादक वास्तव में एक समूह था, जो आधिकारिक नौकरशाही का हिस्सा था और राजा के शासन को वैधता प्रदान करता था, न्याय प्रदान करता था तथा मदरसों में शिक्षा देता था।

लेकिन इतने साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं, जिनके आधार पर दिल्ली सल्तनत को इस्लामी राज्य कहा जा सके। इस काल के शासकों के सभी क्रियाकलाप राजनैतिक थे और दिल्ली सल्तनत ने धर्म के प्रचार के लिए कभी कोई प्रयास नहीं किए। निर्माण और दान राज्य की प्रमुख गतिविधियाँ थी।

राज्य के प्रभुत्व को मजबूत करने के लिए राज्य अक्सर भवन, मस्जिद, नहर, कुओं आदि का निर्माण करवाता था। शासित वर्ग को संरक्षण प्रदान करने के लिए राज्य द्वारा जरूरतमंदों और विद्वानों को उदारता से दान दिया जाता था। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

प्रश्न 7. उत्तर मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था का आलोनात्मक विश्लेषण कीजिए।

उत्तर मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात 187 ई.पू. में उपमहाद्वीप में अनेक राज्य तथा राजनीतिक शक्तियों का जन्म हुआ। दूसरे शब्दों में, उस समय किसी भी सर्वोच्च राजनैतिक शक्ति का अभाव था।

कुछ राजनीतिक शक्तियाँ; जैसे यवन, शक तथा कुषाण ने उत्तर-पश्चिम सीमा क्षेत्र से उपमहाद्वीप में प्रवेश करके उत्तर तथा पश्चिम भारत में अपना नियंत्रण स्थापित किया।

इस काल में भारतीय उपमहाद्वीप में प्रथम बार राजतंत्रीय राज्य की स्थापना राजनैतिक पद्धति का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष था। राजनैतिक व्यवस्था के रूप में राजतंत्र का ही प्रचलन रहा।

राजा की शक्ति में वृद्धि का प्रमाण राजा द्वारा अपनाई गई अतिशयोक्तिपूर्ण राजनीतिक उपाधियाँ हैं। यह महान मौर्य सम्राट द्वारा साधारण उपाधि; जैसे ‘राजा’ धारण किए जाने के बिल्कुल विपरीत था।

इस काल के शासक एकराट (एकमात्र राजा), राजाधिराज (राजाओं का राजा), सर्वलोगिश्वर (प्राणियों का भगवान), महीश्वर (पृथ्वी का भगवान), जैसी उच्चतम स्तर की उपाधियों को धारण करते थे।

बैक्ट्रियन-यूनानी शासकों के द्वारा उपमहाद्वीप पर पहली बार राजाओं के चित्रों को अंकित किया। सिक्कों पर शासक के चित्रित प्रतिबिंबर उद्देश्य राजनैतिक शक्ति द्वारा प्रजा पर अपनी शक्ति तथा अधिकार को प्रदर्शित करना होता था। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

पुष्यमित्र शुंग तथा दक्षिण में सातवाहन राजाओं के दवारा अश्वमेध, वाजपेय व राजसूय जैसे वैदिक अनुष्ठानों का आयोजन विशेष रूप में महत्त्वपूर्ण है।

शासक द्वारा अपनी शक्ति तथा गौरव को बढ़ाने के उद्देश्य से इस प्रकार के अनुष्ठानों का आयोजन किया जाता था। यहाँ फिर मौर्यकाल से भिन्नता स्पष्ट होती है। MHI 04 Free Assignment In Hindi

इस प्रकार के अनुष्ठानों का आयोजन मौर्य राज्य क्षेत्र में नहीं किए गए। इन वैदिक अनुष्ठानों का उद्देश्य शासक को ईश्वर के बराबर या दैवीय स्तर पर ऊँचा उठाना होता था।

शासक द्वारा इस प्रतिष्ठा का दावा वंश या दैवी स्तर की अवधारणाओं पर आधारित नहीं था, बल्कि शासक द्वारा शुभ अवसरों पर धार्मिक अनुष्ठानों के आयोजन से शासक को दैवी स्तर की ऊँचाइयों तक पहुँचाना था।

कुछ विद्वानों ने शासकों के इन दावों को प्रासंगिक देवत्व जैसे तत्त्वों के संदर्भ में समझा है। कुषाणकाल के बाद से राजा के देवत्व के दावे अधिक दृढ़ता से सामने आए। कुषाण राजाओं के द्वारा अपनी राजवंशीय उपाधि देवपुत्र का प्रयोग नियमित रूप से किया जाता था।

चीनी विचार पर यह अवधारणा आधारित थी, जिसमें शासक को स्वर्ग का पुत्र माना गया है। एक अभिलेख में कुषाण राजा कनिष्क को देव-मनुष की उपाधि प्रदान की गई है।

मनुसंहिता में भी लगभग इसी प्रकार के विचार हैं, जिनमें उल्लिखित है कि अवयस्क राजा का भी अनादर तथा अवज्ञा नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि वह मनुष्य के रूप में महान देवत्व का स्वरूप है।

कुषाणों के सिक्कों पर कुषाण राजाओं का चित्रण है तथा उनके सिर के पीछे तेज प्रतिबिंबित है, जिससे उनकी मनुष्येतर या पारलौकिक प्रकृति का पता चलता है।

विस्तृत कुषाण साम्राज्य में कम से कम पांच राजवंशों (देवकुल) की समाधियाँ थीं, जिनमें मृत तथा गद्दी पर आसीन राजाओं की भी मूर्तियाँ रखने का चलन था। खुद को सम्मानित देवता के रूप में कुषाण सम्राट प्रदर्शित करते थे तथा उनके द्वारा राजाओं के अनुयायियों के पंथ की स्थापना की गई।

दैवी राजत्व व राजनैतिक स्वरूप वाली मूर्तिकला ने कुषाण साम्राज्य व उसने सम्राटों की शक्ति में बहुत वृद्धि कर दी थी। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

कुषाण साम्राज्य में चूँकि बड़ी संख्या में विभिन्न जातीय, धार्मिक, सामाजिक-आर्थिक समूह थे, सम्राट के अनुयायियों के पंथ ने कुषाण राजाओं को बड़ी विभिन्नताओं के बीच जोड़ने वाले तत्त्व के रूप में स्थापित किया। दूसरे शब्दों में, इससे कुषाणों को विस्तृत साम्राज्य को एकत्रित करने में सहायता प्राप्त हुई है।

मनुसंहिता तथा महाभारत के शांतिपर्व में इस अवधारणा पर बल दिया गया है कि राजा का सबसे बड़ा कर्त्तव्य अपनी प्रजा की रक्षा करना है तथा वर्णाश्रम धर्म को आधार मानते हुए एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था कायम करना था।

इन दोनों पुस्तकों में राजा को कर एकत्रित करने का अधिकार प्रदान किया गया है, क्योंकि उसके द्वारा प्रजा को संरक्षण प्रदान किया जाता था।

इस अवधारणा से यह पता चलता है कि राजा तथा प्रजा के बीच अनुबंध था और दोनों द्वारा अपने कर्त्तव्य व दायित्व को निभाने का विचार इसमें निहित था। इससे अनुबंध पर आधारित राजत्व के सिद्धान्त के तत्त्वों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

वंशानुगत उत्तराधिकार चूँकि सामान्य विशेषता थी, इसी कारण राजतंत्र मजबूत हुआ। कुषाण साम्राज्य में संयुक्त शासन का भी प्रचलन था; जैसे गद्दी पर आसीन कुषाण सम्राट ज्येष्ठ शासक था तथा कनिष्ठ सह-शासक भविष्य में उसका उत्तराधिकारी था।

उदाहरणार्थ, कनिष्क व वशिष्क, वशिष्क व हुविष्क, हुविष्क व कनिष्क-II, हुविष्क व वासुदेव-|| यह कहना संभव नहीं है कि संयुक्त शासन की पद्धति उत्तराधिकार के लिए संघर्ष को रोकती थी

अमात्य जैसे उच्च स्तर के पदाधिकारियों पर प्रशासन की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती थी। इस काल की यह एक सामान्य विशेषता थी। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

अधिकांश सैद्धान्तिक ग्रन्थों के द्वारा अमात्य मंत्रिगन तथा सचिव को समानार्थक शब्द माना गया है जिनका प्रयोग उच्च स्तर के अधिकारियों के लिए किया जाता था और इसमें मंत्री भी शामिल होते थे। बौद्ध जातकों में मंत्रियों के परिवार अमाचालुक का उल्लेख मिलता है।

क्या इसका अर्थ यह समझना चाहिए कि अमात्य वंशानुगत आधार पर उच्च वर्ग (वंश) के कुछ परिवारों के सदस्यों में से नियुक्त किए जाते थे। शक राजा रुद्रदमन-I (150 ई.) के अधीन दो महत्त्वपूर्ण अधिकारी थे कर्मसचिव तथा मतिसचिव।

निश्चित रूप में पहला कार्यकारी अधिकारी था, जबकि दूसरा अधिकारी बुद्धिजीवी वर्ग का था। मतिसचिव कर्मसचिव से भिन्न होता था।

क्योंकि उसका काम सलाह देना था, इसी कारण उसकी तुलना मंत्री से की जा सकती है। पश्चिम तथा मध्य दक्खन में सातवाहन राज्य-क्षेत्र के मध्य में कई अमात्यों की नियुक्ति की गई थी।

केन्द्रीय प्रशासन के नियंत्रण में सैनिक संगठन होता था। पहले ही की तरह सेना के चार प्रमुख अंग थे पैदल सेना, घुड़सवार, रथ व हाथी। सेना प्रमुख का आमतौर पर सेनापति कहा जाता था।

यह उपाधि पुष्यमित्र शुंग द्वारा मौर्य साम्राज्य के पतन तथा शुंग शासन की स्थापना के बाद भी प्रयोग में लाई जान थी। इस काल में गुप्त प्रतिनिधियों का राज्य के कुशल प्रबंधन में महत्त्व था।

शासक की आँख से गुप्तचरों की तुलना की जाती थी। लेकिन इस काल सैद्धान्तिक ग्रंथ एक व्यवस्थित गुप्तचर व्यवस्था की छवि प्रस्तुत नहीं करते, लेकिन कौटिल्य के द्वारा इसका समर्थन किया गया है।

प्रशासन की प्रमुख जिम्मेदारी राजस्व एकत्रित करना था। विशेष रूप में केन्द्रीय प्रशासन था। राजस्व शब्दावली जैसे भाग (उपज का हिस्सा), शुल्क (चुंगी तथा सीमाशुल्क) पहले की तरह ही प्रयुक्त होती थी। रुद्रदमन-1 यथोचित (यथा) तथा निर्धारित तरीकों से कर एकत्रित करता रहा तथा उसने शोषण हीरे की खान पर लगाए कर से बहुत अधिक था। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

हालाकि विधि पुस्तकों में यथाचित कर वसूलन पर ही बल दिया गया है, लेकिन महाभारत में इस नियम से अलग महत्त्वपूर्ण प्रावधान है। राजा द्वारा करों का बोझ धीरे-धीरे विभिन्न चरणों में बढ़ाया जाना चाहिए जैसे वाहन चालक धीरे-धीरे पशुओं पर वस्तुओं को लादता है।

एक अन्य रोचक सलाह यह भी है कि राजा को अपनी प्रजा से अप्रत्यक्ष रूप से अधिक-से-अधिक संसाधन इकट्ठा करने चाहिए। कुछ मौकों पर राजा बेगार (विष्टि) और आपात्कालीन कर (प्रणया) भी लागू कर सकता था तथा वसूल सकता था,

जैसा कि रुद्रदमन के जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है। हालाँकि अभिलेख में राजा की प्रशंसा की गई है तथा कहा गया है कि उसने अवैध मांगों पर आधारित प्रजा के शोषण को समर्थन नहीं दिया।

क्षत्रप को उत्तरी व पश्चिमी भारत में प्रांतीय प्रशासन का दायित्व सौंपा गया था। इस पद्धति का उदय ईरान के अकमीनिद साम्राज्य से जुड़ा हुआ है, MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

जहाँ क्षत्रप को प्रान्तीय प्रशासन की जिम्मेदारी सम्भालने के लिए नियुक्त किया गया था। अतः सोदास का प्रमुख क्षत्रप राज्यपाल मथुरा का प्रभारी था, यरुतना व उसके पौत्र रुद्रदमन-[ दोनों क्षत्रप थे तथा गुजरात व काठियावाड़ के प्रभारी थे और वे कुषाण अधिराज के अधीन 150 ई. तक कार्य करते रहे।

जब रुद्रदमन पूर्ण रूप में स्वतंत्र हो गया (महाक्षत्रप) तब उसने काठियावाड़ क्षेत्र में अमात्य के स्तर का प्रांतीय राज्यपाल नियुक्त किया। कनिष्क-1 ने वाराणसी में दो राज्यपाल नियुक्त किए थे,

जिनके नाम थे खरपलना तथा नसफरा। एक क्षत्रप था तथा दूसरा सेना अध्यक्ष के स्तर का था (दंडनायक)। इससे यह पता चलता है कि कुषाण काल में उच्च स्तर के सेना अधिकारी नागरिक प्रशासन के लिए भी नियुक्त किए जाते थे।

इन्हें प्रशासनिक व्यवस्था में स्थानीय स्तर पर शामिल किया गया था। स्थानीय स्तर पर यह एक नया प्रयोग था, जिसकी भारतीय इतिहास में पहले कभी कोशिश नहीं हुई थी। कुछ विद्वानों का मत है कि गुप्त प्रशासनिक व्यवस्था मौर्य व्यवस्था से अधिक विकेन्द्रीकृत थी।

विकेन्द्रीकृत प्रकृति होने के कारण ही इसमें स्थानीय स्तर पर गैर-शासकीय लोगों की भूमिका थी। इसको केन्द्रीय सत्ता के राजनैतिक नियंत्रण के धीरे-धीरे विघटन का द्योतक माना गया है।

लेकिन इस अवधारणा को कुछ विद्वानों के द्वारा अस्वीकार किया गया है। उनकी मान्यता है कि जिला स्तर के प्रशासन में स्थानीय तत्त्वों में समाहित किए जाने से गुप्त साम्राज्य मजबूत हुआ और लगभग ढाई सौ सालों तक कायम रहा। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

प्रश्न 8. भारतीय सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था के बारे में प्राच्यवादी और इंजिलवादी अनुभूतियों एक लेख लिखिए।

उत्तर मध्यकालीन ईसाई चित्रकला में पूर्व या प्राच्य को चमत्कारों और दैत्यों की आकर्षक धरती के रूप में दर्शाया गया है। प्रबोधन की तर्क और सांसारिक अवधारणाओं ने पूर्व की इन छवियों को परिवर्तित करके उसे देवा और राक्षसों की धरती के रूप में परिवर्तित कर दिया, लेकिन अब भी इन धरतियों और लोगों को विकास और सभ्यता के सांसारिक वर्ग से अलग वर्ग के रूप में देखा जाता था।

इनको यूरोपीय समाजों की तुलना में निचली श्रेणी का और सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ समझा जाता था। औपनिवेशकों और उनके अधीन प्रजा के वर्गीकरण का आधार यही समझ थी।

थॉमस और मेटकाफ के अनुसार, “चूँकि अंग्रेजों ने स्वयं को ब्रिटिश के तौर पर परिभाषित करने का प्रयास किया था भारतीयों के तौर पर नहीं, इसलिए उन्हें भारतीयों को वह सब-कुछ बनाना पड़ा, जो वे अपने को बनाना पसंद नहीं करते थे।” MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

इस तरह अंग्रेजों ने अपने आपको ईमानदार, मेहनती, सशक्त, तार्किक और प्रबुद्ध लोगों के रूप में प्रस्तुत किया। इसके विपरीत भारतीयों को धोखेबाज, काहिल, अतार्किक, अंधविश्वासी के रूप में प्रस्तुत किया गया।

ये प्राच्यवादी छवियाँ बहुत दिनों तक कायम रहीं, लेकिन अपने शासन की मजबूती के लिए भारत के अतीत को समझने के लिए वारेन हेस्टिंग्स के द्वारा काफी प्रयास किए गए।

उसके अनुसार औपनिवेशिक राज्य की जरूरतों को पूरा करने में इस तरह की जानकारी आवश्यक थी। भारतीय भाषाओं में प्रवीण एक पूर्वामुखी और ऐसे उच्च वर्ग के निर्माण का लक्ष्य था, जो भारतीय परम्पराओं को जानता था। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

इस दृष्टिकोण से प्रेरित होकर विलियम जोन्स, एच.टी. कोलबुक, विलियम केरी, एच.एच. विलसन तथा जेम्स प्रिंसेप जैसे प्राच्यवादी विद्वानों और प्रशासकों ने दर्शन, पुरातत्त्व और इतिहास के क्षेत्र में अपना योगदान दिया।

उनके द्वारा एक स्वर्ण युग का निर्माण किया गया और नाटकीयता तथा रूपकों के बल पर तत्कालीन भारतीय समाज के मुकाबले खड़ा किया जो सती, कन्या भ्रूण-हत्या, जातिगत पूर्व और तरह-तरह के अंधविश्वासों पर आधारित था।

विलियम जोन्स की रचना से यह बात स्पष्ट होती है जो अपनी रचनाओं में यह लिखता है कि “आज हिन्दू चाहे कितने ही पतित क्यों न दिखाई पड़ें, लेकिन प्रारम्भिक कुछ युगों में कलाओं और हथियारों में उनका कोई सानी नहीं था, सरकारों से वे खुश थे, विधान में बुद्धिमान और विभिन्न ज्ञान के मामले में श्रेष्ठ थे।

दूसरे सभी क्षेत्रों की जानकारी प्राप्त करने के लिए भाषाओं शास्त्रीय और देशी दोनों का ज्ञान आवश्यक था।” बर्नार्ड एस. कोहन के अनुसार, “आदेश जारी करने, एस. कोहन के अनुसार, “आदेश जारी करने, कर वसलने, कानन-व्यवस्था बनाए रखने और जिन लोगो पर वे राज कर रहे थे,

उनके बारे में जानकारी प्राप्त करने के अन्य रूपों को पैदा करने के लिए एक पूर्वापेक्षा थी तथा उस जानकारी से उस विशाल सामाजिक जगत को वर्गीकृत करके उसे नियंत्रित किया जा सकता था।”

सफलतापूर्वक औपनिवेशिक शासन संचालन के लिए देशज भाषाओं पर अधिकार और लोगों के इतिहास एवं संस्कृति की जानकारी जरूरी थी। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल (1784) ने भारतीय रचनाओं का अनुवाद करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण काम किया। फारसी भाषा का व्याकरण (विलियम जोन्स, 1771), देशी भाषाओं का व्याकरण (विलियम केरी) और बंगाली व्याकरण (नाथोनियल हाल्हेड, 1788) आदि प्रारम्भिक शब्दकोष, व्याकरण और शिक्षण में सहायक सामग्री से सम्बन्धित रचनाएँ थीं।

जॉन बी. गिलक्राइस्ट नामक चिकित्सक फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी साहित्य और भाषा विभाग के प्रोफेसर थे।

हेस्टिंग्स का भारत पर शासन करने का सिद्धान्त यह था कि भारत पर शासन, खासतौर पर कानून के मामले में, भारतीय सिद्धान्तों के आधार पर ही होना चाहिए।

विलियम जोन्स, एच.टी. कोलबुक तथा अन्य सभी विद्वानों को भारतीय विद्वानों की ईमानदारी पर सन्देह था और वे खुद प्रामाणिक पुस्तकों में दिए गए कानूनों को समझना चाहते थे।

उनका मानना था कि इससे भारतीय कानून को संहिताबद्ध करने में सहायता प्राप्त होगी और ब्रिटिश अधिकारी भारत पर शासन कर सकेंगे। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

उनका यह भी मानना था कि एक कानूनी पुस्तक में समाहित जानकारी से भारतीय मातहतों और पंडितों, मौलवियों पर कारगर नियंत्रण रखा जा सकेगा ताकि, अंग्रेजों को गलत दिशा में न ले जाएँ। इसके बावजूद 18वीं शताब्दी के छठे दशक तक हिन्दू और मुसलमान कानूनी सलाहकार अंग्रेजों को भारतीय अदालतों से जुड़े रहे थे।

भारतीय भाषाओं की जानकारी से सामाजिक क्षेत्र में हस्तक्षेप का रास्ता खुल गया। जोनाथन डंकन के व्यावसायिक जीवन से यह स्पष्ट होता है । MHI 04 Free Assignment In Hindi

इसने बनारस के राजकुमारों को कन्या भ्रूण-हत्या रोकने के लिए समझा लिया था। उस समय वह बनारस का रेजीडेंट था। बाद में भाषा में महारत हा। करने के पश्चात वह बम्बई का गवर्नर बन गया।

जब 1800 में लॉर्ड वेलजेली ने कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की, तब उसने भावी प्रशासकों को प्रशिक्षित करने का व्यावहारिक काम किया। बाद में यह काम हेलबरी कॉलेज द्वारा किया गया।

प्राच्यवादियों ने अतीत के भारतीय राज्यों को समझने के लिए जिस पूर्वी निरंकुशता के विचार का इस्तेमाल किया, उसका अर्थ था, एक तानाशाह सम्राट की अनियंत्रित, निरंकुश सत्ता जो एक प्रशासनिक उच्च वर्ग के माध्यम और गुलामों की मेहनत के सहयोग से राज करता था।

पूर्व भारतीय राज्यों की संरचनाओं को समझने के लिए अलेक्जेंडर डो ने भी इसी प्रकार की धारणाओं को अपनाया था। उपमहाद्वीप में अपने तानाशाही शासन को सही ठहराने के लिए अंग्रेजों ने इसी प्रवर्ग का सहारा लिया था। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

इस प्रकार की निरंकुशता पालने के पीछे कारण के रूप में उन्होंने उष्ण कटिबंधीय जलवायु और भारत के धर्मों पर खासतौर पर इस्लाम का उल्लेख किया था, जिसका अपना ही निर्माणात्मक प्रभाव था।

धार्मिक रीति-रिवाजों के ढेर को एक साथ जोड़ने की प्रक्रिया भारतीय मान्यता पद्धतियों के उस वर्णन में स्पष्टतः उभरकर सामने आई।MHI 04 Free Assignment In Hindi

प्राच्यवादियों ने भारत और यूरोप के बीच अंतर इस बात को लेकर भी किया कि भारतीय पहचान का निर्माण सर्वोपरि धर्म की प्रधानता पर जोर से होता है।

कला एवं स्थापत्य को धार्मिक स्वभाव की देन और अभिव्यक्ति के रूप में लिया गया। इस प्रकार प्राचीन काल के सभी सम्मिश्रण हिन्दू या बौद्ध वर्ग के थे और मध्यकालीन कला के तमाम वर्णन इस्लामिक कला के रूप में किए गए थे। विधि के क्षेत्र में भी हिन्दू और मुस्लिम कानूनों के अलग-अलग क्षेत्र कायम किए गए।

18वीं शताब्दी के अंतिम दशकों के दौरान इंग्लैंड में इवेन्जिलवाद एक शक्तिशाली प्रोटेस्टेंट ईसाई आन्दोलन के रूप में उभरकर सामने आया था। यह ब्रिटेन में समुदायों के नैतिक सुधार पर बल देता था।

उन्हीं दिनों इंग्लैंड में औद्योगीकरण आगे बढ़ रहा था और एक नए मध्यम वर्ग का जन्म हो रहा था। इवेन्जिलवाद एक नैतिक एजेन्सी बन गया था। बेलगाम व्यक्तिवाद को अनुशासित किया गया था और व्यक्तिवाद अनुभव तथा गोसपेल के व्यक्तिगत पठन पर अपने जोर के साथ उसे प्रतिष्ठा प्रदान की गई थी।

पादरियों के माध्यम और धार्मिक अनुष्ठानों के बजाय निष्ठा के तौर पर इवेन्जिलवाद निजी पुनरोत्थान, परिवर्तन की प्रक्रिया पर एक प्रकार के पुनर्जन्म पर भरोसा करता था।

पाप से बचा लिए जाने का अनुभव अचानक हुआ एक प्रबोधन था। उन्होंने सादगी पर और ईश्वरीय साम्राज्य को धरती तक फैलाने के ठोस उपाय के रूप में दृढ़ता पर भी जोर दिया।

इवेन्जिलवादियों ने परिवर्तन और मुक्ति एक पूर्वापेक्षा के तौर पर भी बल दिया, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान केवल उद्घाटित शब्द या बाइबिल को स्वयं पढ़ने से ही हो सकता था।

भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना से जॉन शोर और चार्ल्स ग्रांट जुड़े हुए थे। इंग्लैंड लौटने के बाद उन्होंने विल्बर फोर्स; जाकेरी, मेकाले, हेनरी थोर्टोन और जॉन वेन के साथ मिलकर कलाफाम सम्प्रदाय की स्थापना की। इसका बहत अधिक प्रभाव इवेन्जि दास व्यापार की समाप्ति और मिशनरी काम के लिए भारत को खोलने की माँग की। डेविड ब्राउन, क्लाडिअस बुकानन, हैनरी मार्टायन और थामस थॉमसन जैसे कुछ इवेन्जिलवादी मिशनरियों को भारत भेजा गया।MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

1813 के चार्टर एक्ट में मिशनरी गतिविधियों के लिए बहुत आजादी दी गई। इवेन्जिलवादी मिशनरियों ने ईसाई बने लोगों की कानूनी सुरक्षा की और सती तथा कन्या भ्रूण-हत्या की समाप्ति की माँग की।

उनकी यह भी माँग थी कि भारत में ब्रिटिश सरकार को हिन्दुओं और मुसलमानों के धर्मस्थलों की सहायता नहीं करनी चाहिए।

चार्ल्स ग्रांट की पुस्तक ‘आबज्रवेशंस ऑन दि स्टेट ऑफ सोसाइटी अमंग दि एशियाटिक सब्जेक्ट्स ऑफ ग्रेट ब्रिटेन’, ‘पर्टीकुलरली विद रेसपेक्ट टू मोराल्स : एंड और मींस ऑफ इंप्रूविंग इट’ में भारतीय समाज और संस्कृति की कड़ी निन्दा की गई थी जिसे अंधविश्वासी, बर्बर और निरंकुश के रूप में देखा गया था।

उनकी मान्यता थी कि मानव स्वभाव के परिवर्तन में केवल कानून से कुछ नहीं हो सकता। भारत की सभी बुराइयों का इलाज वह भ्रांत भारतीयों को ब्राह्मणवादी पुरोहितवाद के आतंक से मुक्ति में देखता था।

इसको शिक्षा के माध्यम से इवेन्जिलीकरण और धर्म प्रचार की प्रक्रिया के द्वारा प्राप्त किया जा सकता था। उनकी यह मान्यता थी कि असभ्यों को सभ्य बनाने से वे भौतिक रूप से भी सम्पन्न होंगे, जो वाणिज्य का विस्तार करने के ब्रिटिशों के बुनियादी इरादे की सेवा करेंगे।

22 जून, 1813 को ब्रिटिश संसद में विल्बर फोर्स के भाषण से भी यह बात साफ होती है। उसने अपने भाषण में कहा था कि “हिन्दू देवी-देवता लोलुपता, अन्याय और निर्ममता के प्रतीक हैं और यह धर्म निन्दनीय है।”…

इवेन्जिलवादी भारतीय भाषाओं, रीति-रिवाजों, भावनाओं और धर्मों का अवमूल्यन करने में अकेले नहीं थे। मुक्त व्यापार का शक्तिशाली गठजोड़ और विचारधाराएँ तथा ईसाइयत सभी एक साथ समाज के पूर्ण स्थानांतरण के लिए एक साथ खड़े थे। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

ऐसा समझा जाता था कि असभ्य और नासमझ भारतीयों को सभ्य बनाने और उनको सुधारने अर्थात भारतीय समाज के अंग्रेजीकरण से देश में औपनिवेशिक हितों की बेहतर सेवा हो सकेगी।

भारतीयों की धा परम्पराओं में वारेन हेस्टिंग्स और लॉर्ड कॉर्नवालिस दखल देना नहीं चाहते थे, लेकिन इवेन्जिलवादियों ने प्रथा के विरुद्ध अभियान में पहल की और इस को उजागर करके उन्होंने भारत में अंग्रेजों को उनका समर्थन करने को मजबूर कर दिया।

सती प्रथा जैसी बर्बर और अमानुषिक प्रथा को दबाने से ब्रिटिशों की और उसके साथ ही ईसाई सभ्यता की श्रेष्ठता भी प्रमाणित हो सकती थी। मेटकॉफ के अनुसार आत्म-त्याग का उचित तरीका घर में देवी के रूप में था न कि चिता पर बलि के तौर पर था।

इससे स्पष्ट है कि इवेन्जिलवादी की तरह बेंटिंक भारतीयों को ईसाई बनाने के पक्ष में नहीं थे। 1857 और उसके बाद की घटनाओं ने औपनिवेशिक राज्य को मजबूर कर दिया कि जातियों के मामले में वे अपनी अहस्तक्षेप की मुद्रा बनाए रखें और जातिभेद का समर्थन करें।

18वीं शताब्दी के छठे और सातवें दशक में मिशनरियों को तब सफलता मिली जब तथाकथित अस्पृश्य जातियों के बीच सामूहिक धर्मांतरण के चलते धर्म बदलने वालों की संख्या में भारी वृद्धि हुई।

धर्मांतरण करने वालों के लिए प्रभावशाली प्रेरक वह आर्थिक राहत थी, जो अकालों के दौरान मिशनरियों के द्वारा उपलब्ध कराई गई थी। MHI 4 Solved Free Hindi Assignment

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