MHI 09
भारतीय राष्टीय आंदोलन
MHI 09 Free Assignment In Hindi
MHI 09 Free Assignment In Hindi jan 2022
भाग क
प्रश्न 1. राष्ट्र और राष्ट्रवाद के उदय के बारे में आधुनिकतावादी और गैर-आधुनिकतावादी सिद्धान्तों की तुलना कीजिए।
उत्तर राष्ट्रवाद के सिद्धांत राष्ट्रवाद के सभी विद्वान इस बात से सहमत हैं कि राष्ट्रवाद को किसी विशिष्ट या आंतरिक कारकों या समाज के अन्दर सक्रिय कारणों से स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। इसको स्पष्ट करने के लिए समुचित बाहरी कारकों या विशेष समाज के बाहरी कारकों की जरूरत है।
टॉम नैन का कहना है कि यह सही नहीं है कि किसी प्रकार का राष्ट्रवाद आतरिक गतियों का उत्पाद है। राष्ट्रवाद के विद्वानों में मुख्य मतभेद बाहरी कारकों को भी पहचान को लेकर है। कुछ लोग राष्ट्रवाद को मानव समाज के विकास के आवश्यक चरण के रूप में देखते हैं।
अन्य सिद्धांतकार राष्ट्रवाद को एक मानव भावना या पहचान के लिए बड़ी सामाजिक और मनोवैज्ञोनिक जरूरत या एक बड़ी पूर्णता के साथ पहचानते हैं। इस प्रकार राष्ट्रवाद की अवधारणा व्यापक है।
इसके लिए विभिन्न प्रकार की व्याख्याएं सामने आती हैं। मतभेदों को विचारों के माध्यम से समझा जा सकता है। ये विचार राष्ट्रवाद को एक दुर्घटना से लेकर एक महान मानवीय जरूरत के रूप में ले जाते हैं। इन सभी विचारों में दो विचार विशेष महत्त्वपूर्ण हैं गैर आधुनिकतावादी एवं आधुनिकतावाद
गैर-आधुनिकतावादी सिद्धांत :- MHI 09 Free Assignment In Hindi
आधुनिकतावादी राष्ट्र को एक आधुनिक परिघटना मानते हैं और इसके उद्भव काल को पिछली तीन शताब्दी से भी कम मानते हैं। इसके विपरीत गैर आधुनिकतावादी राष्ट्रवाद को अधिक अवधि का मानते हैं।
उनका कहना है कि जटिलता के साथ गुंफित राष्ट्रवाद इतने कम समयांतराल में नहीं हो सकता और इसका विकास लंबे समय में हुआ है। जिस प्रकार आधुनिकतावादी विद्वानों में आपसी सहमति नहीं है, उसी प्रकार गैर-आधुनिकतावादियों में भी आपसी सहमति नहीं है।
उन्हें विकासवादियों, प्रकृतिवादियों और निरन्तरवादियों में विभाजित किया जा सकता है। प्रकृतिवादी राष्ट्रवाद को अति प्राकृतिक भावना के रूप में देखते हैं।
प्रकृतिवादियों के आसपास ही निरन्तरता की स्थिति है। उनका कहना है कि पाकिस्तान तो उसी क्षण अपने अस्तित्व में आ गया, जब मुस्लिम शासन स्थापित होने से गैर-मुसलमानों का बड़े स्तर पर धर्मांतरण हुआ।
वस्तुतः सभी देशों की अपनी छवि होती है, जिसे राष्ट्रवादी विचारक या नेता बनाते हैं। राष्ट्रवाद पर किये महत्त्वपूर्ण शोधों में निरन्तरवादियों की स्थिति को समझा गया है तथा उसे ‘आविष्कृत परंपरा’ के रूप में व्यक्त किया गया।
आविष्कृत परम्परा में राष्ट्रवादी अतीत तथा परम्परा का प्रयोग करते हैं और उससे प्रेरणा प्राप्त करते है। वे अपने राष्ट्र के लिए अतीत, इतिहास तथा परम्परा से इसकी उपस्थिति का दावा करते हैं।
उनके अनुसार परम्परा का रूप आविष्कृत या कृत्रिम होता है। परम्परा का आविष्कार विशेष प्रकार से किया जाता है, जिससे इसका इस्तेमाल राष्ट्रवादियों के समर्थन में हो।
जिन्ना मुस्लिम राष्ट्र को न्यायोचित केवल इस आधार पर ठहरा सके कि हिन्दू और मुसलमान के मध्य किसी प्रकार का संबंध नहीं है तथा यही कारण था कि भारतीय इतिहास में मुस्लिम राष्ट्र का अस्तित्व बहुत पहले से रहा है। MHI 09 Free Assignment In Hindi
इस प्रकार मुस्लिम राष्ट्र को वैध ठहराने के लिए परम्परा की खोज की जा रही थी। प्रमुख इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम की राष्ट्रवाद की अवधारणा भी महत्त्वपूर्ण है।
उनका तर्क है कि मानव इतिहास के पूर्व आधुनिक काल से गुजरते हुए राष्ट्रवाद की व्याख्य की जा सकती है।
पूर्व उपस्थित संस्कृतियों, विरासतों तथा विभिन्न अन्य नैतिक संधियों, भावनाओं एवं पूर्व स्मृतियों पर राष्ट्रवाद केन्द्रित है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़. एक-दूसरे के साथ बढ़ती है और राष्ट्र के उदय में योगदान देती है।
आधुनिकतावादी सिद्धांत :-
सभी आधुनिकतावादी एक-दूसरे से सहमत नहीं हैं और उनके विचारों में पर्याप्त भिन्नता है। राष्ट्रवाद का एक प्रभावशाली आधुनिकतावादी सिद्धांत अर्नेस्ट गैलनर द्वारा दिया गया।
गैलनर राष्ट्रवाद के उदय को विश्व के कृषक समाज से औद्योगिक समाज में रूपान्तरण के रूप में व्यक्त करते हैं। नये औद्योगिक समाज ने बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय समुदायों के सृजन को आवश्यक बना दिया।
औद्योगिक समाज में कुछ ऐसी विशेषताएं थीं, जो सम्पूर्ण विश्व में एक शक्ति के रूप में राष्ट्रवाद के उभार के रूप में सामने आईं। यद्यपि गैलनर के सिद्धांत में एक बड़ी समस्या थी।
गैलनर द्वारा वर्णित औद्योगिक समाज पूर्णरूप से विकसित यूरोपीय समाजों में विकसित हो सकता था। इसके विपरीत यही राष्ट्रवाद वास्तव में एक वैश्विक शक्ति के रूप में उभरा और यह विकसित तथा अविकसित दोनों प्रकार के देशों में फैला,
इसलिए प्रश्न उठता था कि एशिया तथा अफ्रीका के देशों में राष्ट्रवाद की व्याख्या किस प्रकारका की जाए।
इस प्रश्न का उत्तर एक अन्य आधुनिकतावादी विद्वान टॉम नैन के सिद्धांत से मिला था।
उसने राष्ट्रवाद को वैश्विक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के क्रियाकलापों के साथ जोड़ा, परन्तु गैलनर के विपरीत उन्होंने अपने व्याख्या की तलाश विकास, शिक्षा तथा औद्योगिक समाज की गतिशीलता की अपेक्षा औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप सभी समुदायों को मिली विषमता तथा विस्थापन में की।
इस भिन्नता ने विश्व को ‘यूरोपिन अभिकेन्द्र’ तथा एक एशियाई तथा अफ्रीकी परिधि में विभक्त कर दिया अर्थात् पूँजीवाद ने साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद को जन्म दिया।
क्षेत्र के संभ्रांतों ने इस विषमता के अपमान को अधिक महसूस किया। इसका सामना करने के लिए एकता तथा एकात्मकता की दृष्टि ने एक विशाल समुदाय निर्माण करने का कार्य किया।
सभी सीमाओं से परे जाकर उन्होंने औपनिवेशिक वर्चस्व के खिलाफ लड़ाई लड़ी। इसी प्रक्रिया के दौरान इन उपनिवेशों में राष्ट्रवाद का उदय हुआ। MHI 09 Free Assignment In Hindi

प्रश्न 2. आर्थिक राष्ट्रवाद की धारणा की व्याख्या कीजिए। इसके आरम्भिक सिद्धान्तकारों के मुख्य विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर पारंपरिक रूप से आर्थिक राष्ट्रवाद ऐसी विचारधारा के रूप में स्वीकार किया जाता है, जो अर्थव्यवस्था, श्रम और पूँजी के निर्माण के घरेलू नियंत्रण पर जोर देती है। यह भूमण्डलीकरण के विरुद्ध और निरंकुशता का द्योतक है। इसकी अन्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं
(i) आर्थिक राष्ट्रवाद आर्थिक उदारवाद और मार्क्सवाद के साथ आधुनिक राजनीतिक अर्थव्यवस्था की महत्त्वपूर्ण विचारधारा है, जो भारतीय राष्ट्रवाद का महत्त्वपूर्ण पक्ष था।
(ii) हाल के लेखकों का विचार है कि आर्थिक राष्ट्रवाद के आधार पर सरोकार किसी विशिष्ट नियत किस्म की आर्थिक नीतियों जैसे कर की बाधाएं और संरक्षणवाद की अपेक्षा राष्ट्र से ज्यादा है।
अतः इस दृष्टिकोण के अनुसार आर्थिक राष्ट्रवाद की विचारधारा के आधार पर विशिष्ट आर्थिक नीतियों की पुष्टि न करके इसकी राष्ट्रवादी अंतर्वस्तु को स्पष्ट करना चाहिए।
(iii) राष्ट्र और राष्ट्रवाद को आर्थिक राष्ट्रवाद के अंतर्गत लाने से इसे समझ पाना संभव है कि आर्थिक राष्ट्रवादी विभिन्न आर्थिक नीतियों को आदि बढ़ा सकते हैं, जिनमें से कुछ आर्थिक विचारों की धाराएं दूसरी धाराओं से जुड़ी हो सकती हैं।
आर्थिक राष्ट्रवाद के आरंभिक समर्थकों के मत ये मत निम्नलिखित हैं ।
(1. 19वीं शताब्दी के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी फ्रेडरिक लिस्ट (1789-1846) ने आर्थिक राष्ट्रवाद और आर्थिक राष्ट्रवाद की धारणा की पहल की। उनका ‘राष्ट्रीय अर्थशास्त्र का सिद्धांत एडम स्मिथ के ‘व्यक्तिगत अर्थशास्त्र’ और जीन बापटिस्ट के ‘सार्वभौमिक अर्थशास्त्र’ से अलग प्रकार का है।
(2. लिस्ट ने अपनी पुस्तक में मूलत: व्यक्ति या संपूर्ण मानवता के लाभ हेतु आर्थिक नीतियों का आकलन करने के लिए आर्थिक उदारवादियों की आलोचना की। MHI 09 Free Assignment In Hindi
उन्होंने उदारवादी विचार के ‘मृत भौतिकवाद’ की आलोचना करते हुए कहा कि उदारवादियों ने व्यक्ति को सिर्फ एक उत्पादक और उपभोक्ता माना, न कि राष्ट्र का सदस्य या राज्य का नागरिक।।
(3. लिस्ट के अनुसार ‘असीम सार्वभौमवाद’ के विचार ने आर्थिक नीति के उद्देश्य हेतु राष्ट्र को विशेष महत्त्व नहीं दिया है। उन्होंने दावा करते हुए कहा है, “प्रत्येक व्यक्ति और संपूर्ण मानवता के बीच राष्ट्र खड़ा है।”
उन्होंने इस मध्यवर्ती शाखा पर आधारित अपने दृष्टिकोण को सूत्रबद्ध किया “मैं राष्ट्रीयता को अपनी व्यवस्था की प्रमुख विशिष्टता के रूप में संकेतित करता हूँ।
राष्ट्रवाद की प्रकृति पर व्यक्तिवाद और संपूर्ण मानवता के मध्यवर्ती रुचि के रूप में, मेरी संपूर्ण संरचना आधारित है।” उनके अनुसार व्यक्ति राष्ट्र के सदस्य हैं, इसलिए आर्थिक नीतियाँ व्यक्तियों के धन को बढ़ाने का लक्ष्य रखने वाली न होकर राष्ट्र की संस्कृति और शक्ति के विकास के प्रति उन्मख होनी चाहिए।
इस प्रकार का विकास अंतत: संपूर्ण मानवता को स ‘मनुष्य जाति का सभ्य होना प्रत्येक राष्ट्र के सभ्य और विकसित होने के माध्यम से ही बोधगम्य और संभव हो सकता है।’
(4 लिस्ट मानते थे कि ‘एक राष्ट्र विशेष किस प्रकार समृद्धि, सभ्यता और शक्ति प्राप्त कर सकता है और देश के औद्योगिक विकास के द्वारा इसे प्राप्त किया जा सकता है।
अत: नये उद्योगों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए कर की बाधाएं खड़ी करना, लिस्ट की आर्थिक नीतियों का आधारभूत लक्ष्य है।
(5. आर्थिक राष्ट्रवाद की एक अन्य प्रवृत्ति थॉमस एटवुड (1783-1859) ने दी। वे एक ब्रिटिश बैंकर और राजनेता थे। इस धारा के राष्ट्रवादी ने रूपान्तरित हो सकने योग्य मुद्रा की आर्थिक उदारवादी नीतियों की आलोचना की है।
आर्थिक उदारवादियों का विश्वास था कि इस प्रकार की वित्तीय नीतियाँ व्यापार को बढ़ावा देंगी। अतः इस उद्देश्य के लिये एक समान वित्तीय मानक हेतु सभी मुद्राओं के लिए उन्होंने स्वर्णमानक का समर्थन किया। एटवुड ने प्रस्ताव रखा कि ब्रिटेन की स्वर्ण से मुक्त एक कागजी मुद्रा होनी चाहिए।
( 6. जर्मन जोहन गॉटलिब फिख्टे (1762-1814) ने आर्थिक राष्ट्रवाद की एक प्रवृत्ति प्रस्तुत की। उसने राष्ट्रीय आर्थिक स्वालवंबन का मजबूती से पक्ष लियादा इसके लिए उन्होंने एक हस्तक्षेपकारी राज्य का समर्थन किया, जो कि जनता के लिए उसकी आर्थिक आवश्यकताओं को प्रत्यक्ष पूर्ति करेगा।
एक अन्य लेखन में उन्होंने एक निरंकुश आर्थिक राष्ट्रवाद तथा एक मजबूत हस्तक्षेपकारी राज्य के पक्ष में तर्क दिया, जो रोजगार सुनिश्चित करेगा। वेतन और मूल्यो को नियंत्रित करेगा।
उन्होंने घरेलू मूल्यों पर नियंत्रण के लिए अविनिमय मुद्रा पर जोर दिया तथा विदेशी व्यापार का निषेध करने की बात कही, क्योंकि व्यापार में उतार-चढाव राष्ट्रीय आर्थिक नीतियों को अस्थिर कर सकता था।
(7. इन प्रवृत्तियों से अलग ब्रिटेन की प्रवृत्ति है। वहाँ के मीति नियंती मुक्त व्यापार के पक्ष में था इसलिए पक्ष में थे कि ब्रिटेन मशीन निर्मित वस्तुओं के व्यापार में उनके एकाधिकार को बढ़ायेगा।
यह उनके देश की शक्ति और समृद्धि में बढ़ोतरी करेगा। मुक्त व्यापार की विचारधारा ने अंग्रेजों को एक राष्ट्रीय श्रेष्ठता का भी आभास कराया, जिसके माध्यम से वे अन्य खासकर औपनिवेशिक देशों की संस्कृति और परम्परा को हेय ठहरा सकते थे। MHI 09 Free Assignment In Hindi
यह प्रवृत्ति कुछ अन्य देशों में भी विद्यमान थी; जैसे फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम और नीदरलैंड। ये वे देश थे, जहाँ औद्योगिक विकास देर से हुआ था। इसलिए यह कहा जा सकता है। कि आर्थिक राष्ट्रवाद समान रूप से उदारवादी आर्थिक नीतियों के विरुद्ध नहीं था।
प्रश्न 4. स्वदेशी आन्दोलन पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर स्वदेशी आंदोलन स्वदेशी आंदोलन ने बंगालियों में फूट डालने के बजाय इन्हें एक कर दिया। वस्तुतः यहाँ एक बंगाल अस्मिता उत्पन्न हो रही थी, जिसकी ओर औपनिवेशिक शासन का ध्यान नहीं गया।
इसमें बंगाल की खराब आर्थिक दशा का भी हाथ था। यहां रोजगार का अभाव था और प्रतिकूल मौसम के कारण कृषि की दशा भी अच्छी नहीं थी।
बंग-भंग के विरुद्ध 1903 में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हो रहे थे और 1905 में विभाजन के बाद भी जारी रहे, क्योंकि लोग विभाजन को रद्द करना चाहते थे। धीरे-धीरे यही आंदोलन बड़े रूप में स्वदेशी आन्दोलन बन गया।
सुमित सरकार के विच में बंगाल में अल्पाधिक चार प्रवृत्तियां विद्यमान थीं उदारवादी प्रवृत्ति, रचनात्मक स्वदेशी, राजनीतिक गरमपंथी और क्रांतिकारी राष्ट्रवाद। बंगाल विभाजन की घोषणा के साथ उदारवारियों ने बंग-भंग योजना का विरोध करना शुरू किया।
वस्तुतः उनकी मांगों की ओर औपनिवेशिक शासन ने ध्यान नहीं दिया। सर्वप्रथम सुरेन्द्र बनर्जी ने स्वदेशी आंदोलन की भूमिका तैयार की और ब्रिटिश वस्तुओं और विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार पर बल दिया।
उदारवादी शिक्षित बंगाली अन्य वर्गों को भी स्वदेशी आंदोलन से जोड़ रहे थे। इसी समय स्वदेशी आन्दोलन के नेताओं ने लोगों से आत्मनिर्भर होने, ग्रामीण संगठन बनाने और रचनात्मक कार्यों पर बल दिया। लोगों को शिक्षा देने के लिए राष्ट्रीय संस्थानों की स्थापना की।MHI 09 Free Assignment In Hindi
उग्रवादी बंगालियों ने रोजमर्रा की वस्तुओं के निर्माण, राष्ट्रीय शिक्षा, पंचायती न्यायालय और ग्रामीण संगठन का कार्यक्रम बनाया। राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन का नेतृत्व सतीशचन्द्र मुखर्जी ने किया।
ब्रह्मबांधव उपाध्याय ने सारस्वत आयतन तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शान्तिनिकेतन आश्रम की स्थापना की। स्वदेशी आंदोलन के नेताओं ने विचार किया कि हिन्दुवाद का प्रचार लोगों को एक मंच पर ला सकता है। सन् 1906 में बंगाल नेशनल कालेज की स्थापना से राष्ट्रीय शिक्षा की गति तेज हो गयी।
गरमपंथियों में यह धारणा विकसित हुई कि राष्ट्रीय जीवन के विकास के लिए आजादी जरूरी है, इसलिए वे पूर्ण स्वतंत्रता और स्वराज्य प्राप्त करने की कोशिश में जुट गए।
उन्होंने इसके लिए अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हिंसक आंदोलन करने का भी विचार किया। अरविंदो घोष ने जनता को एक मंच पर लाने के लिए धर्म को एक माध्यम के रूप में प्रयोग किया,
परन्तु उससे मुसलमानों के स्वदेशी आंदोलन से अलग होने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला। फिर विभिन्न समितियों ने जनसमूह को लामबंद करने की कोशिश की, परन्तु यह भी अधिक सफल नहीं हुआ।
इस असफलता का कारण निम्न किसानों का आंदोलन से अलग होना था, क्योंकि इसमें बड़े पैमाने पर जमींदार शामिल थे। राष्ट्रीय विद्यालयों की संख्या कम होने से शिक्षा को भी पर्याप्त बढ़ावा नहीं मिल सका।
स्वदेशी आंदोलन में पूर्वी भारत और उत्तरी भारत के श्रमिक भी शामिल नहीं थे। इन सबके कारण गरमपंथी आंदोलन 1908 तक कमजोर पड़ गया। सूरत में गमरपंथियों के विभाजन से यह अधिक कमजोर हो गया।
लाला लाजपत राय ने इसे रोकने का प्रयास किया और दोनों दलों में सुलह की कोशिश की, परन्तु बंगाल में स्वदेशी आंदोलन से कांग्रेस की राजनीति नई दिशा में मुड़ गई। काफी विवाद के पश्चात 1907 में कांग्रेस का अधिवेशन सूरत में हुआ।MHI 09 Free Assignment In Hindi
यहाँ अध्यक्ष पद को लेकर विवाद छिड़ गया। विभिन्न नेताओं के बीच तनाव उत्पन्न हो गया। तिलक की मृत्यु और अरविंदो घोष द्वारा संन्यास लेने के बाद राष्ट्रीय आंदोलन के दोनों दल अलग हो गये और आगे चलकर गाँधी जी ने इन्हें फिर एक किया। स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव
स्वदेशी आंदोलन भारत का अपना आन्दोलन था, जिससे भारतवासियों को पर्याप्त सीख मिली। स्वदेशी आंदोलन में शिक्षकों, छात्रों, किसानों और अन्ना वर्गों ने भाग लिया।
फलस्वरूप इससे राष्ट्रवाद का प्रसार हुआ तथा कला और साहित्य का विकास हुआ, क्योंकि पुलिस के दमन को गीतों, कविताओं, व्यंग्यचित्र के रूप में दर्शाया गया। धीरे-धीरे राष्ट्रवाद एक राजनीतिक आन्दोलन बन गया।
विदेशों में बसे लाखों भारतीय भी इस आन्दोलन जुड गये। आन्दोलन की प्राथमिक राजनीतिज्ञों की पीढ़ी बंगाल, पंजाब और महाराष्ट्र आईं।
उदारवादी नेता गोपाल कृष्ण गोखले ने अध्यापक की नौकरी छोड़ देशहित में पूर्णकालिक राजनीतिज्ञ बन गये और उन्होंने सामाजिक सुधारों का समर्थन किया। उन्होंने ‘सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया’ की भी स्थापना की, जिसने अनेक गरीबों को सेवा की।
बाल गंगाधर तिलक ने ‘केसरी’ और ‘मराठा’ नामक समाचार पत्रों के द्वारा देश के लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध जागत किया। अनेक अंग्रेजी शिक्षित युवा शहर छोड़कर गाँवों में गए और स्वदेशी के संदेश का प्रचार किया।
पूर्वी बंगाल में मुस्लिम नेताओं ने अन्य सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों के साथ मिलकर 1906 में ढाका में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना की, जिसने कांग्रेस के विरुद्ध कर्जन के बंग-भंग का समर्थन किया।
स्वदेशी आंदोलन ने अधिकांश भारतीय नेताओं को प्रभावित किया। यद्यपि कलकत्ता राष्ट्रीय विचारों का केन्द्र रहा, परन्तु पूना, मुम्बई, दिल्ली, लाहौर, लखनऊ आदि स्थानों का राजनीति में प्रवेश हुआ।
गाँधी जी ने 1909 में अपने लिखी ‘हिंद स्वराज’ नामक पुस्तक में औपनिवेशिक भारत में राष्ट्रवाद के एक नए दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया। अफ्रीका से आने के पश्चात् महत्त्वपूर्ण आंदोलनों को चलाया, इन सबके बावजद हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता को मिटाया नहीं जा सका।MHI 09 Free Assignment In Hindi
भाग ख
प्रश्न भारत छोड़ो आन्दोलन की पृष्ठभूमि की विवेचना कीजिए। भारत छोड़ो आन्दोलन का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण जन आंदोलन था, जिसने ब्रिटिश सरकार को भारत को आजादी देने के लिए विवश कर दिया, इसलिए इसके तात्कालिक कारणों का अध्ययन आवश्यक है, जो निम्नलिखित हैं
(1. इसका एक महत्त्वपूर्ण तात्कालिक कारण द्वितीय विश्वयुद्ध और इसकी परिस्थितियां थीं। देश में संघर्ष की स्थितियों के कारण मुद्रास्फीति में तेजी से वृद्धि हो रही थी।
किसी भी प्रतिरोध के दमन के लिए सरकारी हस्तक्षेप की तत्परता से युद्ध आपूर्ति तथा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संकट का सामना करने के लिए अपनाये जा रहे रुख के संबंध में राष्ट्रवादी नेताओं और दलों के बीच चलने वाले तीव्र वैचारिक मतभेद 1942 के आंदोलन में सम्मिलित लोगों को प्रभावित कर रहे थे।
(2. सैन्य और रणनीतिक कारणों से भारतीयों की राजनीतिक रियासतों पर रोक लगा दी गयी। युद्ध जैसे-जैसे आगे बढ़ा, राष्ट्रवादी ताकतों ने एशिया औपनिवेशिक प्रणालियों को चुनौती देना शुरू कर दिया,
जिससे ब्रिटेन की स्थिति शोचनीय हो गई। भारत पूर्वी स्वेज की ब्रिटिश रक्षा प्रणाली का मुख्य आधार था, इसलिए भारत को अधिराज्य का दर्जा देने वाले विचारों को समाप्त किया जा रहा था तथा विंस्टन चर्चिल की कठोर और अपरिवर्तित नीति से शासन चलाया जा रहा था।MHI 09 Free Assignment In Hindi
(3. यह भावना मजबूती से उभरी कि जापानी सेना ने बर्मा और पूर्वी बंगाल में चटगाँव के सीमावर्ती क्षेत्रों पर अनेक बार छापा मारा था, जिससे शरणार्थियों में युद्ध, विनाश और परित्याग का खौफ उत्पन्न हो गया।
ब्रिटिश भारतीय सेना का बर्मा का प्रदर्शन बहुत कमजोर हो रहा था। अब ब्रिटिश भारतीय सेना में हिन्द महासागर के नौ सैनिक युद्ध में जापान से टक्कर लेने की हिम्मत नहीं थी। ऐसी परिस्थितियों में गाँधी और कांग्रेस ने ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन चलाने का निर्णय लिया।
(4. भारत के लिए पूर्ववर्ती क्षेत्रों की रक्षा करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी, क्योंकि जर्मनी पश्चिम की ओर से आगे बढ़ रहा था। जापानियों ने दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में ब्रिटिश सेना को हतोत्साहित कर दिया था।
जनरल स्टाफ ने विध्वंस नीति पर काम किया तथा यह योजना बनायी कि इस क्षेत्र में संसाधनों को नष्ट कर दिया जाए ताकि जापानी सेना को आवश्यक सामग्री से वंचित रखा जा सके।
बिजली घरों, तेल भण्डारों, बेतार यंत्रों, दूरभाष तथा तारों आदि के नष्ट करने की योजना बनायी गई। इस नीति से कांग्रेस सहमत नहीं थी।
(5. जापान के हवाई हमलों से बचने के लिए जिन नीतियों को अपनाया गया, वे सभी असफल रही और क्षेत्रों को प्रत्यक्ष सैन्य खतरे का सामना करना पड़ा।
ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के कारण विशेष रूप से पूर्वी भारत में लाखों लोग प्रभावित हुए। अधिकारी आर्थिक दुष्परिणामों पर बहुत कम ध्यान दे रहे थे। 1940 में युद्ध के कारण जूट के मूल्य बहुत अधिक गिर गए और खाद्य-पदार्थों की कीमत पर्याप्त बढ़ गयी।MHI 09 Free Assignment In Hindi
(6. 1942 के मध्य में ब्रिटेन को अपनी क्षमता पर बहुत कम विश्वास था कि ब्रिटिश सेना बंगाल और आसाम को जापानियों के आक्रमण से बचा सकती थी।
आर्थिक तंगी के कारण जो विपत्तियाँ उभर रही थीं, उससे त्रस्त जनता को राजनीतिज्ञों और प्रशासन से मदद की कोई उम्मीद नहीं थी तथा सेना की बढ़ती हुई अनिवार्यताओं जैसे कि डिनायल (त्याग) नीति ने जनता की भावनाओं को राज्यद्रोहों गतिविधियों में परिवर्तित कर दिया था।
(7. ‘भारत छोड़ो’ के आरंभिक दौर में अफवाहों ने युद्ध में आगे होने वाले संघर्ष में ब्रिटिश राज्य संबंधी नीति और ब्रिटिश हार के विचार के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस प्रकार की अफवाहें एक प्रतिरोध एवं जनसमूह का ज्ञान दर्शा रही थीं।
उदाहरण के लिए जैसे ही युद्ध आगे बढ़ा, मई 1941 में केंद्रीय प्रांतों आदिवासी इलाकों में ऐसी अफवाह उड़ी कि गोंड जाति के लोगों का खून घायल ब्रिटिश सैनिकों के अंगों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
वहीं जबलपुर में यह अफवाह फैली कि खाद्यान्नों की कमी के कारण सरकारी तंत्र इस प्रांत को खाली करने का आदेश जारी करने वाली है।
(8. आम लोगों में यह अफवाह फैलायी गई कि शीघ्र ही मई में जापानी बेड़े भारत के पश्चिम तट पर हमला करेंगे। इसके परिणामस्वरूप गुजरात और सौराष्ट्र में बड़े पैमाने पर खाद्य-पदार्थों की जमाखोरी हुई और खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ गईं।MHI 09 Free Assignment In Hindi
‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के शुरू होने से एक माह पूर्व जुलाई 1941 में अधिकारियों ने बताया कि गुजरात के गाँवों में बढ़ती हुई असुरक्षा की भावना की वजह से आत्मरक्षा के लिए हथियारों की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
(9. दिसंबर, 1941 में जापानी आक्रमण में तेजी तथा बंगाल के क्षेत्रों में ब्रिटिश सैन्य बल का कमजोर पड़ना, इन अफवाहों को फैलाया गया कि ब्रिटेन की हार निश्चित है।
किसानों को आगाह किया गया कि सेनाओं से खाद्यान्नों का बचाव करें। नाविकों, बंदरगाहों के कर्मचारियों की किस्मत प्रत्यक्ष रूप युद्ध के उतार-चढ़ाव के साथ जुड़ी हुई थी। इन सबने भारत छोड़ो आंदोलन को प्रेरित किया।
प्रश्न 9 भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की विरासत की मुख्य शक्तियों और कमजोरियों का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर विरासतें राष्ट्रीय आंदोलन आजाद भारत के लिए महत्त्वपूर्ण विरासत थी, परंतु वह अक्षय और स्थायी क्षमता को कायम रखने वाली नहीं थी. इसे सावधानी से पाला और स्थायी बनाया जाना था। यह एक प्रकार से पुश्तैनी संपदा के छः महत्त्वपूर्ण घटक हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है
भारतीय राष्ट्र का निर्माण :MHI 09 Free Assignment In Hindi
भारतीय राष्ट्रवाद का उदय 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ जो एक वैश्विक परिघटना के रूप में था। यह भूभागीय, नागरिक, बहुलतावादी और गैर दमनकारी था।
इसने राष्ट्रीय एकता विकसित करने का प्रयास किया। भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माण के दो स्तम्भ साम्राज्यवाद विरोध और राष्ट्रीय एकता थे। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की एक मुख्य विरासत स्वयं भारतीय राष्ट्र था।
यह पहले से निर्मित नहीं था। अनेक ब्रिटिश विद्वान, वैज्ञानिक आदि भारत के लिए राष्ट्रवाद की संभावना को स्वीकार नहीं करते थे।
वे यह भी मानने को तैयार नहीं थे कि भारतीय लोग साझा राष्ट्रीयता को जन्म देने में सक्षम हैं। 19वीं शताब्दी के राष्ट्रवाद का दावा था कि भारतीय जनगण निर्माणाधीन राष्ट्र है। यह धारणा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने दी थी।
भारत की आजादी (1947) के पश्चात् भारतीय राष्ट्रवाद का एक स्तंभ साम्राज्यवाद विरोध प्रासंगिक स्नेही रह गया है।
राष्ट्रीय एकता की धारणा का अर्थ महत्त्वपूर्ण है। नेहरू का कहना था कि भारतीय राष्ट्र को आर्थिक विकास और जनता के भावनात्मक एकीकरण पर आधारित करना होगा।
भारतीय जनता के लिए औद्योगिक विकास आवश्यक है। राष्ट्रवाद इसके विकास में अवश्य सहायक होगा।
यह सही है कि 1950 के दशक में भारतीय समाज में आमतौर पर आर्थिक विकास के लिए आवश्यक राजनीतिक सर्वसम्मति और सामाजिक समरसता थी, परंतु बाद में इसमें अस्त- व्यस्तता दिखाई दी और समरसता में कमी आई। MHI 09 Free Assignment In Hindi
1990 के दशक के बाद से भारतीय अर्थतंत्र के वैश्वीकरण और तीव्र सामाजिक परिवर्तनों के कारण भारतीय राष्ट्रवाद के लिए चुनौतियाँ आईं।
फिर भी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया जारी है। कुछ प्रवृत्ति इस प्रक्रिया में तेजी ला रही हैं और अन्य इनमें बाधक बन रही हैं।
राजनीति में जन भागीदारी :
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की दूसरी महत्त्वपूर्ण विरासत राजनीति में जन भागीदारी है। लोकतंत्रीकरण ने आंदोलन के दौरान संघर्षों में लोकप्रिय भागीदारी का रूप लिया। भारतीय लोकतंत्र राष्ट्रीय आंदोलन के संघर्षों का ही परिणाम है।
विभिन्न आंदोलनों के प्रत्येक चरण में विभिन्न वर्गों किसान, मजदूर, विद्यार्थी आदि ने भाग लिया। लोगों ने आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए विभिन्न रचनात्मक तरीके निकाले। इन संघर्षों का मुख्य नेतृत्व कांग्रेस ने किया।
उसके द्वारा लिए गए प्रत्येक फैसले पर्याप्त सोच-विचार के बाद लिए गए। कांग्रेस के भीतर निर्णय लेते समय कभी-कभी गंभीर मतभेद हो जाते थे, परंतु इन सबका आपसी समझौतों के जरिए सुलझा लिया गया।
यह सब कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन की लोकतांत्रिक कार्यपद्धति के कारण हुआ।
आजादी के पश्चात् भारतीय संविधान ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित संसदीय लोकतंत्र का मॉडल अपनाया। जनता में नेताओं के विश्वास की जड़ें स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय आंदोलन के उनके अनुभव और राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान विकसित कार्यपद्धति में थीं। MHI 09 Free Assignment In Hindi
इस प्रकार राजनीतिक संरचना का लोकतंत्रीकरण स्वाधीन भारत की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी, जिसका मुख्य कारण बहुत सीमा तक राष्ट्रीय आदोलन के विकासक्रम के दौरान विकसित कार्य व्यवहार है।
भारतीय लोकतंत्र ने उपेक्षित जनता महिला, आदिवासी, दलित, मुसलमान को पर्याप्त आत्माविश्वास दिया कि वे अपने विशेष संघर्ष बिना किसी बाहरी मध्यस्थता की खोज के लोकतंत्र का उपयोग करते हुए इसे स्वयं संचालित करें।
नागरिक अधिकारों का प्रोत्साहन :
राष्ट्रीय आंदोलन का एक अन्य घटक नागरिक अधिकारों का प्रोत्साहन है। प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने प्रेस, अभिव्यक्ति और संगठन की स्वतंत्रता जैसे नागरिक अधिकारों को लेकर आंदोलन किए।
सर्वप्रथम गोपाल कृष्ण गोखले ने शिक्षा को बुनियादी मानव अधिकार स्वीकार किया। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही लोकमान्य तिलक ने वयस्क मताधिकार की माँग शुरू की।
1936 में नेहरू की पहल पर नागरिक अधिकारों को प्रोत्साहन देने के लिए गैर-दलीय तरीके से आई.सी.एल.यू. नामक संस्था की स्थापना की। MHI 09 Free Assignment In Hindi
1922 में गाँधी जी ने भी भाषण की स्वतंत्रता और संगठन की स्वतंत्रता को प्राप्त करना अनिवार्य बताया। इस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों ने स्वतंत्र भारत में अनुपालन हेतु मानवाधिकारों का मजबूत ढाँचा मुहैया करवाया।
आधुनिक विज्ञान और तकनीकी पर आधारित आर्थिक विकास :
राष्ट्रीय नेतृत्व ने राष्ट्रीय आंदोलन के आरंभ से ही यह मन बना लिया था कि भारत में आधुनिक औद्योगिक समाज और अर्थतंत्र का विकास किर 770 जाये। वस्तुतः भविष्य के भारत का उनका खाका किसी भी यूरोपीय देश के समान था,
इसीलिए 1931 के कराची अधिवेशन में पारित बुनियादी अधिकार। , और आर्थिक विकास के भविष्य के बारे में विभिन्न अवसरों पर कम-से-कम दो प्रतियोगी परिप्रेक्ष्य थे,
जो मुख्य धारा की दृष्टि से होड़ कर रहे थे। पहला सपना पूँजीवादी विकास के बरबस समाजवादी आर्थिक विकास का सपना था। इसके अनुसार भारत को आधुनिक औद्योगिक समाज के रूप में विकसित तो होना था,
लेकिन उसमें पूँजीपति वर्ग की प्रभावी भूमिका नहीं होनी थी। नेहरू ने देश के सामने पूँजीवाद और समाजवाद को दो विकल्पों की तरह प्रस्तुत किया और समाजवाद को महत्त्व दिया।
इन दोनों प्रतिद्वन्द्वी परिप्रेक्ष्यों के बीच सर्वसम्मति बनी अर्थात् विज्ञान और तकनीकी पर आधारित आधुनिक औद्योगिक विकास तथा अर्थतंत्र के प्रमुख क्षेत्रों के प्रोत्साहन में राज्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
एक अन्य महत्त्वपूर्ण परिप्रेक्ष्य गाँधी एवं उनके समर्थकों का था, जो संसाधनों के विकेन्द्रीकरण, आधुनिक तकनीक का न्यूनतम प्रयोग, गाँवों को स्वायत्तता और ग्रामीण उद्योग सृजन पर आधारित था।
आर्थिक विकास के बारे में मुख्य धारा का यह दृष्टिकोण आजाद भारत के आर्थिक विकास के लिए राष्ट्रवादी आन्दोलन की एक महत्त्वपूर्ण विरासत साबित हुआ।MHI 09 Free Assignment In Hindi
धर्म निरपेक्षता :–
राष्ट्रीय आंदोलन का आधार धर्मनिरपेक्षता थी, जो अंत तक बनी रही। 1887 के इलाहाबाद कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस ने निश्चित किया कि वह उन धार्मिक सवालों को कभी नहीं उठाएगी,
जिसका विभिन्न समुदाय विरोध करते हैं। अपनी अभिव्यक्तियों, घोषणाओं और कार्यों के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने राजनीति और राज्य से धर्म को अलग करने, धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानने, सभी धर्मों और धार्मिक समुदायों के प्रति समान व्यवहार, धार्मिक भेदभाव न रखना और साम्प्रदायिकता के विरोध के विचारों को प्रोत्साहित किया।
धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर कांग्रेस के दो लोकप्रिय नेताओं गाँधी और नेहरू के अलग-अलग विचार थे। गाँधी धर्म को नैतिकता का आधार मानते थे। प्रारंभ में उन्होंने माना धर्म और राजनीति एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और धर्म व्यक्ति का निजी मामला है।
नेहरू ने कहा कि सांप्रदायिकता धर्म से जुड़ी है, इसलिए समाज में धर्म के प्रभाव को न्यूनतम स्तर पर रखना होगा, ताकि हिन्दू-मुस्लिम समस्या समाधान हो सके।
स्वतंत्र भारत में गाँधी और नेहरू के विचारों में धर्मनिरपेक्षता की जो धारणा विकसित हुई, वह न तो धर्म विरोधी थी और न ही सामाजिकता जीवन में धर्म को नकारने पर आधारित थी, इसकी जगह पर सांप्रदायिकता और धर्म के आधार पर किसी भी भेदभाव के विरोध पर आधारित थी।
स्वतंत्र विदेश नीति :
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ही भारतीय नेताओं ने विदेशी नीति का अंतर्राष्ट्रीयवादी ढाँचा विकसित कर लिया था, जिसके आधार पर स्वतंत्र भारत में राज्य द्वारा आधारित विदेशी नीति का खाका बनाने में सहायता मिली।
कांग्रेसी नेताओं ने विदेशी विजय और अधिग्रहण की ब्रिटिश नीति की आलोचना की। 20वीं शताब्दी में जब अंग्रेजों ने फारस और तुर्की के मामले में हस्तक्षेप किया, तो कांग्रेस ने इसका विरोध किया।
गाँधी और नेहरू दोनों ने मिलकर वैश्विक आयाम ग्रहण किया। 1921 में कांग्रेस ने अपनी स्वतंत्र विदेश नीति की घोषणा की। अंग्रेजों की विदेश नीति से अलग कांग्रेस ने शांति स्वतंत्रता और वैश्विक सहयोग को विदेश नीति आवश्यक संघटक बताया। MHI 09 Free Assignment In Hindi
उन्होंने यूरोपीय साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में लगे हुए अन्य एशियाई देशों के स्वाधीनता आंदोलनों का समर्थन करना शुरू कर दिया।
नेहरू 1927 में रूस गये तो उन्होंने देखा कि रूसी क्रांति का रूस पर प्रभूत प्रभाव पड़ा है. इससे वे प्रभावित हुए, क्योंकि उसकी विदेशी नीति भी ब्रिटिश विदेशी नीति पर आधारित थी।
राष्ट्रीय आन्दोलन द्वारा अपनायी गई विदेशी नीति का आधार भारतीय राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रीयतावाद के प्रति संयुक्त निष्ठा थी। जापान द्वारा चीन पर आक्रमण से गाँधी दु:खी थे। उन्होंने सभी देशों से इसमें हस्तक्षेप की अपील की, जिससे युद्ध को रोका जा सके।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की विलक्षणता :
भारत के इतिहास में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का स्थान वही है जो यूरोप के इतिहास में फ्रांसीसी क्रांति (1989) और रूस के इतिहास में रूसी क्रांति का है।
विशेष रूप से गाँधीवादी राष्ट्रीय आंदोलन में अधिक सर्वानुमति बनी, जो लम्बे समय तक कायम रही। इस सर्वानुमति के दो प्रमुख कारक थे साम्राज्यवाद विरोध और राष्ट्रीय एकता की धारणा।
जमीनी स्तर पर इसका तात्पर्य लायलिस्टों और संप्रदायवादियों से था। लायलिस्ट अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान थे और सम्प्रदायवादी राष्ट्रीय एकता में विश्वास नहीं करते थे।MHI 09 Free Assignment In Hindi
सर्वानुमति में अनेक प्रकार की राजनीतिक प्रवृत्तियाँ थीं, जो एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न थीं; जैसे कांग्रेस के भीतर वामपंथी और दक्षिण पंथी।
इन्हें राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित होने के लिए अपनी मौलिक राजनीतिक दिशा को छोड़ने की जरूरत नहीं थी। यह विविधता महत्त्वपूर्ण विलक्षणता थी, जिसने आजादी का मार्ग प्रशस्त किया।
कमजोरियाँ और सीमाएं :
राष्ट्रीय आंदोलन की विरासतों में कुछ कमजोरियां और सीमाएं भी रहीं। कहा जाता है कि राष्ट्र को वैसी ही जनता मिलती है, जिसके योग्य वह होता है। चूंकि राष्ट्रीय आंदोलन भारतीय समाज और जनता का सच्चा प्रतिनिधि था इसलिए इसके क्षेत्र में उनकी शक्ति और सीमा भी चली आई।
यद्यपि आंदोलन ने आधुनिक दिशा में भारतीय समाज के रूपान्तरण की शुरुआत की, परंतु समाज ने उसका भी रूपान्तरण किया। इसका लाभ यह था कि आन्दोलन भारतीय जमीन पर मजबूती से बना रहा,
परन्तु आधुनिक दिशा में भारतीय संरचना के शीघ्र और बुनियादी रूपान्तरण लाने के आंदोलन की क्षमता में कमी आ गई, इसलिए समाज में कुछ नकारात्मक लक्षण भी उभर आये, जैसे ऊँच-नीच की भावना, जातीय पूर्वाग्रह। MHI 09 Free Assignment In Hindi
बहरहाल क्रांतिकारी सामाजिक रूपान्तरण की अक्षमता और केंद्रापसारी तथा विखण्डनकारी ताकतों से प्रभावी रूप से निपटने की असफलता राष्ट्रीय आंदोलन की दो बड़ी कमजोरियाँ थीं।
ये स्वतंत्र भारत की राजनीति में बनी हुई हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि स्वतंत्र भारत में समाज और राजनीति राष्ट्रीय आंदोलन की छाया में ही चलती हुई मानी जा सकती हैं।
MHI 06 Free Assignment In Hindi July 2021 & jan 2022
MHI 03 Free Assignment In Hindi July 2021 & jan 2022