BHIC 101
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प्रश्न 1. पुरातत्व से आप क्या समझते हैं। प्राचीन आरत के इतिहास के पुनर्निर्माण में पुरातात्विक स्रोतों के महत्व को स्पष्ट करे
उत्तर-पुरातत्व उस विषय को कहते है, जिसमें इतिहासिक महत्व की प्राचीन बैस्तुओं का अध्ययन किया जाता है, लेकिन इसे एक परिभाषा में व्यक्त करना आसान नहीं है, क्योकि इसका स्वरूप बहुआयामी है। पुरातत्व अंग्रेजी भाषा के Archaeology का हिंदी रूपांतरण है।
यह यूनानी भाषा को दी शब्द archaids और logos मिलकर वन अलिपानि या पुराना और Logos का अर्थ है जान। इस प्रकार Archaeology का शाब्दिक अर्थ प्राचीन या पुराना ज्ञान है।
इस शब्द का प्रारम्भ में उपयोग पुरा-अवशेषों के संकलन के अपवन के रूप में हुआ था। तथा विशेषकर यूनान और रोम के पुरा-अवशेषों के सन्दर्भ में, क्योंकि इन देशों के अतीत के अध्ययन से ही पुरातत्व का विकास हुआ, लेकिन इस विषय के ज्ञान विस्तार के साथ-साथ पुरातत्व की परिभाषाएँ भी विकसित होती गयी।
डॉ. संकालिया के अनुसार पुरातत्व का मूल रूप में अर्थ पुरा-अवशेषों का ही अध्ययन है।कोई समय था जब पुरातत्व का लक्ष्य उत्खनित कलात्मक समाग्री को इकट्ठा करके संग्राहलयों में सजाना होता था, लेकिन पुरातत्व का क्षेत्र अब अत्यंत व्यापक हो गया, इसलिए कहा जाने लगा है कि पुरातत्व मानव के अतीत का अध्ययन है।
गार्डन चाइल्ड के अनुसार पुरातत्व सुस्पष्ट भौतिक अवशेषों के माध्यम से मानव के क्रियाकलापों का अध्ययन है। ग्राहम काल्र्क के शब्दों में पुरातत्व को मानव आतीत के इतिहास की संरचना के लिए पुराअवशेषों के क्रमवध्य अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
पुरातात्विक स्रोत
पुरातत्व के अंतर्गत अतीत को समझने के लिए हम मूर्तियों, मृद्भाड, हड्डियों के टुकड़े पर के अवशेषा, सिक्कों (मुद्राएं) शिलालेख या अभिलेख आदि पुरातात्विक स्रोत की सहायता से भौतिक संस्कृति का अध्ययन करते हैं।
ये पुरातात्विक स्रोतों के अध्ययन के आधार पर ऐतिहासिककाल का पुननिर्माण किया जाता है। 1920 के दशक तक यह माना जाता था कि भारतीय सभ्यता की शुरूआत लगभग छठवीं शताब्दी बी.सी.ई से शुरू हो गयी थी
लेकिन मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई के साथ भारतीय सभ्यता के 5000 बी.सी.ई. में अस्तित्व में आने का पता चला। अब पुरातत्व की सहायता से यह ज्ञात हुआ है कि माषाण काल की अवधि से ही कम या अधिक बस्तियों की बसावट प्रारंभ हो गयी थी। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
प्रमुख पुरातात्विक तरीकों में उत्खनन और अन्वेषण, जैसे तरीके महत्वपूर्ण हैं। इनके द्वारा हमें सभ्यता की उत्पत्ति, प्रसार, निवास व जीवन निर्वाह का प्रकार, शहरीकरण, व्यापार, कृषि, अर्थव्यवस्था आदि का ज्ञान होता है।
किसी सभ्यता के बारे में जानने के लिए मुद्राशास्त्र (सिक्कों का अध्ययन) भी किया जाता है। पुरातात्विक स्रोतों को मुख्यतया मुद्राओं (सिक्कों) शिलालेख (अभिलेख) तथा स्मारक आदि में बांटा जा सकता है।
सिक्के
उत्खनन में सिक्के मुद्रा भंडार के रूप में पाए जाते हैं। सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र कहा जाता है। 206 ईसा पूर्व से लेकर 300 ईस्वी तक के भारतीय इतिहास का ज्ञान हमें मुख्य रूप से मुद्राओं की सहायता से ही प्राप्त हो पाता है।
इसके पूर्व के सिक्कों पर लेख नहीं मिलता और उन पर जो चिह्न बने हैं उसका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है। ये सिक्के आहत सिक्के या पंच मार्क सिक्के कहलाते हैं।
धातु के टुकड़ों पर ठप्पा मारकर बनाई गई बुद्धकालीन आहत मुद्राओं पर पेड़, मछली. सांड, हाथी, अर्धचंद्र आदि वस्तुओं की आकृतियां होती थीं।
बाद के सिक्कों पर राजाओं और देवताओं के नाम तथा तिथियां भी उल्लेखित हैं। इस प्रकार की मुद्राओं के आधार पर अनेक राजवंशों के इतिहास का पुनर्निर्माण संभव हो सका है,
विशेषकर उन हिंद-यूनानी शासकों के इतिहास का, जो उत्तरी अफगानिस्तान से भारत पहुंचे थे और ईसा पूर्व द्वितीय से प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व तक यहां शासन किय।
मुद्राओं का उपयोग दान-दक्षिणा, क्रय-विक्रय तथा वेतन-एजदूरी के भुगतान में होता था। शासकों की अनुमति से व्यापारिक संघ (श्रेणियों) ने भी अपने सिक्के चलाए थे। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
सर्वाधिक मात्रा में मुद्राए मौर्योत्तरकाल में मिला है जो सीसा, पाटीन, ताबा, कास, चादी तथा सोने की है। कुषाण शासका द्वारा जारी स्वर्ण सिक्कों में जहां सर्वाधिक शुद्धता थी वहीं गुप्त शासकों ने सबसे अधिक मात्रा में स्वर्ण सिक्के जारी किए।
मद्राओं से तत्कालीन आर्थिक दशा तथा संबंधि त राजाओं की साम्राज्य सीमा का भी ज्ञाच हो जाता है। कतिष्क के सिकका से उसका बोद्ध धर्म का अनुयायी होका अनाजित होता है।
समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों पर यूप (यज्ञ स्तंभ) बना है जबकि कुछ अन्य सिक्कों पर अश्वमेध पराक्रमः शब्द उत्कीर्ण है, साथ ही उसे वीणा बजाते हुए भी दिखाया गया है।
इंडो-यूनानी तथा इंडो-सीथियन शासकों के इतिहास के मुख्य स्रोत सिक्के ही हैं। सातवाहन राजा शातकर्णी की एक मुद्रा पर जलपोत अकित होने से उसके द्वारा समुद्र विजय का अनुमान लगाया गया है।
चंद्रगुप्त द्वितीय की व्याघ्र शैली की चांदी की मुद्राओं में उसके द्वारा पश्चिम भारत के शकों पर विजय सूचित होती है।
शिलालेख
ये शिलालेख पाषाण शिलाओं, स्तंभों, ताम्रपत्रों, दीवारों, मुद्राओं एवं प्रतिमाओं पर उत्खनित हैं। सबसे प्राचीन शिलालेख जिन्हें पढ़ा जा सका है, अशोक के हैं।
अशोक के शिलालेखों की भाषा प्राकृत है। कर्नाटक राज्य के रामचूर के पास स्थित मस्की तथा गुन्जर्ग (दतिया) मध्य प्रदेश से प्राप्त शिलालेखों में अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख है।
उसे प्रायः देवानाम पिय पियदस्सी (देवताओं का प्रिय, प्रियदर्शी) राजा कहा गया है। अशोक के अधिकांश शिलालेख बाहमी लिपि में हैं. जो बाएं से दाएं लिखी जाती थी। पश्चिमोत्तर प्रांत से प्राप्त उसके ।
शिलालेख खरोष्ठी लिपि में हैं जो दाएं से बाएं लिखी जाती थी। पाकिस्तान और अफगानिस्तान से प्राप्त अशोक के शिलालेखों में यूनानी और अमराइक लिपियों का प्रयोग हुआ है।
अशोक के शिलालेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम सफलता (1837 ईसवी में) जेम्स प्रिंसेप को मिली। सबसे अधिक प्राचीन शिलालेख 2500 ईसापूर्व की हड़प्पाकाल के हैं जो मोहरों पर भावचित्रात्मक लिपि में अंकित हैं, जिनका प्रामाणिक पाठ अभी तक नहीं हो पाया है। चाहे कितने भी दावे क्यों न किए जाते हों।
शिलालेखों के अनेक प्रकार हैं। कुछ शिलालेखों में अधिकारियों और जनता के लिए जारी किए गए सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक राज्यादेश एवं निर्णयों की सूचना रहती है।
जैसे-अशोक के शिलालेख। दूसरे प्रकार के वे आनुष्चानिक शिलालेख हैं जिन्हें बौद्ध, जैन, बैष्णव आदि संप्रदायों के मतानुयायियों ने स्तंभों, प्रस्तर फलकों, मंदिरों एवं प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण कराया तृतीय श्रेणी के वे शिलालेख हैं जिनमें राजाओं की विजय प्रशस्तियों का वर्णन है।BHIC 101 Free Assignment In Hindi
लेकिन उनके दोषों का उल्लेख नहीं है। प्रशस्ति शिलालेखों में प्रसिद्ध हैं-खारवेल का हाथीगुफा शिलालेख। शक क्षत्रप सद्रदामन का गिरनार जूनागढ़ शिलालेख, सातवाहन नरेश पुलमाबी का नासिक गुफालेख, समुद्रगुप्त का हरिषेण द्वारा रचित प्रमाग स्तंभ लेख, मालवराज यशोधर्मन का मंदसौर शिलालेख, मालुक्य पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल शिलालेख (रविकीर्ति), प्रतितार नरेश भोजराज का ग्वालियर शिलालेस, स्कंद गुप्त का भीतरी तथा जूनागढ़ शिलालेस, बंगाल के शासक विजय सेन का देवपाड़ा शिलालेख इत्यादि।
गैर राजकीय शिलालेखों में यवनदूत हेलियोठोरस का बेसनगर विदिता से प्राप्त गरून स्तंभलेख विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिनसे द्वितीय शताब्दी ईसापूर्व के मध्य भारत में भागवत धर्म के विकसित होने का प्रमाण मिलता है।
एरण मध्य प्रदेश से प्राप्त वराह प्रतिमा पर हूणराज तोरमाण का लेख अंकित है। दक्षिण भारत के पल्लव, चालुक्य, राष्ट्रकूट, पांड्य और चोल वंश का इतिहास लिखने में इन शासकों के शिलालेख बहुत ही उपयोगी साबित होते हैं।
स्मारक
शिलालेखों तथा मुद्राशास्त्र के अतिरिक्त पुरातन अवशेष स्मारक के रूप में अतीत को समझने के लिए उपयोगी है। कुषाणकाल, गुप्तकाल और गुप्तोत्तरकाल में जो मूर्तियां निर्मित की गई उनसे जनसाधारण की धार्मिक आस्थाओं और मूर्तिकला का ज्ञान मिलता हैं।
कुणिकालीन मूर्तियों में जहां विदेशी प्रभाव अधिक है, वही गुप्तकालीन मूर्तिकला में स्वाभाविकता परिलक्षित होती है जबकि गुप्तोत्तर कला में सांकेतिकता अधिक है। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
भुरोधगया सांजी और ममावती की मूर्तिकला में जला मामा के जीवन को सशांकी मिलती है। मध्ययुगीन स्मारकों से शासक वर्ग के वैभव का पता चलता है।
प्रश्न 2. नवपाषाण कांति से आप ज्या समझते हैं। भारत में नवपाषाणा संस्कृति के प्रमुख स्थलों का वर्णन करें।
उत्तर-3000 ६० पूर्व की भारत के प्रारंभिक इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह वह समय था जब मानव ने वन्य जीवन को छोड़कर अपने कदम कृषक संस्कृति की ओर बढ़ाए थे।
उपमहाद्वीप में पहली बार पशुचारी घुमंतू जीवन शैली छोड़कर मानव ने एक जगह बसना आरंभ किया और उसका स्वाभाविक अगला क्रम कृषि अर्थव्यवस्था का उद्भव था।
यह क्षेत्र भारत का उत्तर-पश्चिम इलाका (वर्तमान पाकिस्तान) से लेकर राजस्थान के मरुस्थलों तक फैला हुआ है। इस क्षेत्र की जलवायुगत विशिष्टता का भी इस परिवर्तन में योगदान था।
इसने ऐसी परिस्थितियां पैदा की कि उपमहाद्वीप का विकास कम एक नई डगर पर बढ़ चला।
नवपाषाण-ताम्रपाषाण काल के स्थलों की विशिष्टता यह है कि ये सभ्यता के उस दौर का प्रतिनिधित्व करते हैं जब तांबे के बने औजार और पत्थर के हथियार एक साथ प्रचलित थे। इसी कारण इन संस्कृतियों को नवपाषाण ताम्रपाषाण की संज्ञा दी जाती है। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
यह संक्रमणकाल में एक दौर को इंगित करता है। तांबे के औजार जहां एक ओर विकास के चरण का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहीं दूसरी ओर पाषाण से बने अस्त्र और अन्य उपकरण अतीत से पीछा न छटने का प्रमाण हैं।
इन संस्कृतियों की पहचान मृद्भाण्ठों और विभिन्न पाषाण और अस्थि उपकरणों से की गई है। सस्तनिर्मित मृभाण्डों का प्रतीक मालीमई गुफा संस्कृति है, जो पाकिस्तान में अवस्थित है।
दूसरी ओर गुजरात और बुर्जहोम जैसे कश्मीरी स्थलों की पहचान अस्थि एवं पाषाण उपकरणों के आधार पर की जाती है।
कश्मीर घाटी में स्थित बुर्जहोम और गुफककल की विशिष्टता गर्त-निवास या जमीन के अंदर बने आवास स्थल हैं। यह उपमहाद्वीप में अन्यत्र दुर्लभ हैं और नागार्जुनकोण्डा को छोड़कर अन्यत्र इस प्रकार के प्रमाण अब तक नहीं मिले हैं। लोग जमीन के अंदर घर बनाकर माँ रहते थे, इस बात को लेकर इतितासकारों में मत बिभिन्नता है
सुभो बिद्वानों ने इस सम्बन्ध में अलग-अलग प्रकार के मत प्रस्तुत किए हैं। कश्मीर घाटी की अत्यंत ठंडी जलवायु के कारण माना जाता है कि ये गर्त आवास सर्दी से बचाव के लिए निर्मित किए गए थे।
इनका प्रयोग खाद्य पदार्थों और अन्य अत्यावश्यक वस्तुओं के संग्रह के लिए भी किया जाता था।
इनसे प्राप्त प्रमाण ऐतिहासिक रूप से हमारे लिए | अत्यंत मूल्यवान हैं। पशुओं और अनाजों के अवशेष, अस्थि निर्मित औजार, विभिन्न दैनिक उपयोग की वस्तुएं यहाँ से मिली हैं, जो इस स्थल को विशिष्टता प्रदान करती हैं।
नवपाषाण-ताम्रपाषाण काल के प्रमाण के तौर पर राजस्थान में दो स्थलों को लिया जा सकता है। ये गणेश्वर और अहार संस्कृतियाँ थी, जो अत्यंत प्रारंभ से ही ताम्र उपकरणों का इस्तेमाल करने के लिए विख्यात रही हैं।
इस क्षेत्र में स्थित सेतड़ी की तांबे की सानों के कारण इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए, जो आज भी ताम्र आपूर्ति का भारत में प्रमुख स्रोत है। इस प्रकार इस सभ्यता में ताम्र उपकरणों की प्रधानता थी। इनका प्रयोग दैनिक जीवन में विविध क्रियाकलापों में किया जाता था। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
ध्यान देने की बात यह है कि इनका उपयोग पाषाण उपकरणों के साथ-साथ जारी रहा। इनसे बाणों के अगले भाग, मछली फंसाने का कांटा, सौंदर्य प्रसाधन, अस्त्र-शस्त्र आदि निर्मित किए जाते थे।
अधिक मात्रा में इनकी प्राप्ति से यह अनुमान लगाना सहज है कि ये केवल स्थानीय उपयोग हेतु नहीं थे और इनका व्यापारिक उपयोग होता था। इन्हें अन्य स्थानों को निर्यात किया जाता था और इस प्रकार उस प्राचीनतम काल में यह व्यापार का एक प्रमाण प्रस्तुत करता है।
घर बनाने में लकड़ी और मिट्टी का प्रयोग किया जाता था। टाटा मिट्टी को लेपकर दीवारें बनाई जाती थी और फर्श की लिपाई भी मिट्टी से की जाती थी। ये छोटे-छोटे घर बस्तियों का एक प्रारूप प्रस्तुत करते हैं।
जहां तक इनकी अर्थव्यवस्था का प्रस्न है, यह माना जा सकता है कि हड़प्पा के नगरों से इनके व्यापारिक सम्बन्ध थे।
कई हडप्पाई स्थलों में यहां की निर्मित ताम-वस्तुएं मिली हैं, जो आदान-प्रदान की और सकत करती है। हस्तनिर्मित मृवभाण्ट भी हडपाई पदचापकों के साथ मायारमाते हैं।
व्यता बटवा कि ये हड़प्पा सभ्यता की समकालीन संस्कृतियां तो थी ही, हड़प्पा उदय से पूर्व भी ये एक विशिष्ट किस्म की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो अलग-अलग न होकर आसपास के क्षेत्रों से जुड़ी हुई थी।
इन सभ्यताओं की समकालीन एक अन्य सभ्यता दक्कन में पुष्पित-पल्लवित हुई थी, जिसे भस्म टोला संस्कृति के नाम से जाना जाता है। यह इन उत्तर-पश्चिम और राजस्थान की नवपाषाण- ताम्रपाषाण संस्कृतियों से भिन्न है। इस भिन्नता को अनेक स्तरों पर चिह्नित किया जा सकता है।
इन भस्म टीलों का उद्भव इतिहासकारों के लिए अनुमान का विषय रहा है। माना जाता है कि मवेशियों के गोबर को जलाने से इन राख के टीलों का निर्माण हुआ था। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
कुछ इतिहासकार मानते हैं कि दक्षिण भारत में जाड़े के समय ठंड से बचाने के लिए आग जलाकर मवेशियों को उस पर से गुजारा जाता था, जिससे इन टीलों का निर्माण हुआ।
आज भी इस परंपरा के अवशेष कुछ पर्व-त्योहारों (पोंगल) के रूप में अवशिष्ट हैं, जो इस पुरानी प्रथा की याद दिलाते हैं।
जतां नवपाषाण-ताम्रपाषाण संस्कृतियां बड़ी नदियों के किनारे स्थित भी और अपने अस्तित्व के लिए उन्हीं पर निर्भर भी, यहीं भम्म टीला संस्कृति छोटे-छोटे झरनों के निकट पनपी।
जहां एक ओर तामपाषाणकालीन संस्कृतियां नदी-घाटियों और पहाड़ों के बीच अवस्थित थीं, वहीं दक्कन के पठारी परिवेश के कारण यहां बड़ी सदानीरा नदियों की अवस्थिति संभव नहीं थी और इसलिए झीलों और झरनों के आसपास भस्म टीला संस्कृति का आविर्भाव संभव हुआ।
एक दूसरा अंतर, जो ध्यातव्य है. वह कृषि और पशुपालन के बीच का है। जहां एक ओर राजस्थान और भारत के उत्तर-पश्चिम की संस्कृति कृषि पर आधारित भी और पशुपालन गौण होता जा रहा था बलों दूसरी ओर भस्म टीला संस्कृति पशुपालक संस्कृति भी।
यहाँ पशुपालन का केन्द्रीय महत्त्व था. ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कृषि का महत्त्व नवपाषाण-ताम्रपाषाण संस्कृतियों में था। पशुओं के अवशेषों का मिलना और मूर्तियों चित्रों में पशुओं के अंकन से इस धारणा को बल मिलता है। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
इस प्रकार समकालीन होते हुए भी ये दोनों संस्कृतियां अलग-अलग युगों और प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती है।
भस्म टीला संस्कृति क्षेत्र में पाई जाने वाली फसलें ताम-पाषाण संस्कृति की फसलों से भिन्न हैं। दोनों क्षेत्रों में वही फसलें उगाई जाती भी, जो उस जलबायु के उपयुक्त थी। इस क्षेत्र में वर्षा कम होती थी अत: बार-बाजरा एवं दालें मुख्य रूप से उगाई जाती थी, जो ताम्र-पाषाण संस्कृति की फसलों से गुणात्मक रूप से भिन्न थीं।
उन संस्कृतियों को दक्कन या बक्षिण की तुलना में अधिक जल उपलब्ध था, जिसका प्रभाव फसलों के पैटर्न और तरीकों पर दिखता है।
नवपाषाण-ताम्रपाषाण संस्कृतियों के विपरीत यहां फसलों की अनेक किस्मों का जंगल से लाकर घरेलूकरण किया गया। इस प्रक्रिया में शताब्दियां लग गई. पर यह समकालीन संस्कृतियों की अपेक्षा कठिन रहा होगा।
जहां कश्मीर, उत्तर-पश्चिम और आज की संस्कृतियों में गेहूं मुख्य भोजन था. यहां चावल के भी अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसका कारण भी मुख्य रूप से जलवायुगत भिन्नता थी।
सत्रीय कार्य-॥
प्रश्न 3. प्रारम्भिक हड़प्पा संस्कृति से आप क्या समझते हैं? प्रारम्भिक और परिपक्व चरण के बीच के संक्रमण की कुछ विशेषताओं पर चर्चा करें
उत्तर-एक प्राचीन शहर की खोज-सबसे पहले एक अंग्रेज चार्ल्स मोसन ने हड़प्पा गांव को देखा। उसने यहां की बहुत पुरानी बस्तियों तथा दीवारों को देखा। 1972 में कनिंघम इस स्वान पर आए तथा जिन्होंने कुछ पुरातात्त्विका वस्तुएं जकट्ठी की। उन्होंने यह माना कि ये वस्तुएं भारत के बाहर की है।
1924 ई. में मार्शल ने पहली बार हड़प्पा के विषय में रिपोर्ट दी तथा बताया कि यह विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। मार्शल की इस घोषणा से इतिहासविदों में हलचल मच गई कि पश्चिमोत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में एक नई सभ्यता खोज ली गई है। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
हड़प्या सभ्यता का युग
जॉन मार्शल के अनुसार इस सभ्यता का काल पांच हजार वर्ष पुराना है। कनिंघम के अनुसार यह सभ्यता एक हजार वर्ष पुरानी है। मार्शल ने यह पता लगाया कि हड़प्पा से प्राप्त साक्ष्य मुहरें, ठप्पे आदि उनसे बिल्कुल भिन्न थे, जिनसे विद्वान परिचित थे तथा जो बहुत बाव के समय की थी।
इसी प्रकार गोहनजोदड़ो में प्राचीन बस्तियां बौद्ध बिहार के नीचे दबी हुई मिलीं। हड़प्पा सभ्यता के निवासी गकान के नष्ट हो जाने पर उसके ऊपर मकान बना लेते थे।
इस कारण पुरातत्त्वविदों को उत्खनन से पता चलता है कि नीचे का मकान ऊपर के मकान से पुराना है।
मार्शल को इस बात का प्रमाण मिल गया था कि इन बस्तियों के लोगों को लोहे की जानकारी नहीं थी। लोहे का प्रयोग लगभग 2000 ई.पू. में शुरू हुआ। मार्शल द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी से पता चला कि हड़प्पा से मिलती-जुलती वस्तुएं मेसोपोटामिया में भी प्राप्त हुई हैं।
यह भी पता चला कि हड़प्पा और मेसोपोटामिया के निवासी समकालीन थे।
हड़प्या पूर्व और हड़प्पाकालीन संस्कृति का कालानुक्रम
मेहरगढ़ और मिली गुलमुहम्मद जैसी बस्तियों का कालानुक्रम 5500-3500 ई. पूर्व है। यहां के लोग पशुचारण के साथ थोड़ी बहुत खेती कर लेते थे। लोग गेहू, जौ, खजूर तथा कमास की खेती करते थे।
इनके मकान मिट्टी के थे तथा वे भेड़-बकरियों को पालते थे। 3500-2600 ई. पूर्व में अनेक बस्तियां स्थापित हुई। ताबा, चाक और हल का प्रयोग हुआ तथा मिट्टी के बर्तन बनने लगे। अन का भण्डारण किया जाता था
पीपल, कुबड़ा बैल, सींगवाले देवता की आकृतियां प्राप्त हुई हैं। ___2600-1800 ई. पू. के मध्य नगरों का अभ्युदय हुआ। नगर सुनियोजित तरीके से बनाए जाते थे।BHIC 101 Free Assignment In Hindi
समान आकार की ईटें, मिट्टी के वर्तन, सुदूर व्यापार, समकोण पर काटती सड़कें आदि इस नगरीकरण के विशिष्ट लक्षण थे।1800 ई.पू. के बाद नगर का पतन होने लगा। यहां की तकनीक और परम्परा को दूसरे क्षेत्रों में अपनाया जाने लगा।
इसे हड़प्पा की सभ्यता ही क्यों कहा जाता है?
अभी तक एक हजार से भी अधिक बस्तियों की खोज हो चुकी है। जहां से हड़प्पा की विशिष्टाएं प्राप्त होती हैं। आरंभ में यहां सभ्यता की खोज सिंधु नदी के आसपास ही हुई, इसलिए इसे सिंधु घाटी की सभ्यता का नाम दिया गया।
पुरातत्त्ववेत्ता इसे ‘हड़प्पा की सभ्यता’ कहते हैं, क्योंकि पुरातत्त्व-विज्ञान में यह परम्परा है कि जब किसी प्राचीन संस्कृति का वर्णन करना होता है, तो उस स्थान के आधुनिक नाम पर उस संस्कृति का नाम रखा जाता है, जहां उसके अस्तित्व का पहली बार पता चला था।
पूर्ववर्ती इतिहास
हड़प्पा सभ्यता से तात्पर्य हजारों गांवों तथा उन कस्बा से है, जो लगभग 3000 ई. पू. पूर्ण रूप से विकसित हो चुके थे। इन कस्बों | और गांवों के बीच अन्योन्याश्रय सम्बन्ध थे। इन भौगोलिक स्थलों में आमतौर पर पंजाब, गुजरात, राजस्थान और पाकिस्तान के कुछ भाग आते थे।
हड़प्पा के स्थली से प्राप्त अवशेषों से शहर के अभ्युदय की जानकारी मिलती है। कुछ प्रमाण से यह साबित होता है कि हड़प्पा | के पूर्वज गांवों और छोटे-छोटे कस्बों में रहते थे। पशुचारण और व्यापार उनका पेशा था।”
कृषि की शुरुआत और बसे हुए गांव.
कृषि के अभ्युदय का सबसे प्राचीन प्रमाण मेहरगन से प्राप्त होता है। यह 5वीं सहसाब्दी में आबाब गांव था। यहां के लोग गेहू, जौ और खजूर की खेती करते थे। यहां के लोग कच्चे मकानों में रहते थे। तीसरी सहसाब्दी में अफगानिस्तान और ब्लूचिस्तान के क्षेत्र में बहुत सारे छोटे-बड़े गांव बस गए थे।
किली गुलमुहम्मद और मुंडीगाक दो महत्त्वपूर्ण गांव हैं। यहां के किसानों ने उपजाऊ मैदानों का प्रयोग किया। इसी प्रकार किसानों ने सिंधु की बात पर भी नियन्त्रण करना सीख लिया।
इस कारण बस्तियों का विस्तार होता चला गया और ये बस्तियां, सिंधु, राजस्थान और ब्लूचिस्तान में फैल गई। इस काल में अस्थायी बस्तियों और खानाबदोश समुदायों के साक्ष्य मिलते हैं।
इन खानाबदोश समुदायों के सम्पर्क से किसान अन्य क्षेत्रों के संसाधनों का प्रयोग करना सीख गया। इन कारणों से छोटे-छोटे कस्बों का विकास हुआ। | ये सारी घटनाएं आरम्भिक हड़प्पा काल की हैं।
आरम्भिक हड़प्पा काल :
आरम्भिक हडप्पा काल को बहुत से इतिहासकारों ने ‘हड़प्पा काल’ माना है, क्योंकि उनके अनुसार यह हड़प्पा सभ्यता के निर्माण का युग था। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
दक्षिणी अफगानिस्तान- यहां का सबसे प्रमुख स्थल मुंडी- डाक है। खानाबदोशों के निवास के कारण यहां की आबादी घनी हो गई और यह नगर के रूप में विकसित हो गया।
क्वेटा बाटी– यहां के दंब सादात स्थल से पुरातात्त्विक साक्ष्य पाए गए हैं, जिनमें ईटों से बने बड़े-बड़े घर प्रमुख हैं। यहां से प्राप्त साक्ष्य तीसरी सहस्राब्दी ई. पू. के हैं।
चित्रकारी किए हुए मिट्टी के बर्तन मुंडीडाक से प्राप्त बर्तनों से काफी समानता रखते हैं। साक्ष्यों से पता चलता है कि वे लोग सम्पन्न थे।
मध्य और दक्षिणी ब्लूचिस्तान- इस क्षेत्र के बालाकोट. अंजीरा तोगाऊ. निदोबाड़ी बस्तियों से आरम्भिक हड़प्पा सभ्यता की जानकारी मिलती है। बालाकोट में विशाल भवनों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस क्षेत्र से प्राप्त साक्ष्यों से बालाकोट का फारस की खाड़ी से सम्पर्क होने का संकेत मिलता है।
कालीबंगन- राजस्थान में अवस्थित इस स्थान से पूर्व हदण्या काल के प्रमाण मिले हैं। वे मकान बनाने के लिए मानक आधार बनी कच्ची ईटों का प्रयोग करते थे।
इस स्थान की सबसे बड़ी विशेषता यह भी कि यहां के प्रत्येक मरों में कंए थे। इनके मिट्टी के बर्तन आकार और डिजाइन में अलग थे, किन्तु कोटदीजी के बर्तनों से समानता रखते थे।
यहां से जुते हुए खेत का साक्ष्य भी प्राप्त हुआ है। इससे साबित होता है कि वे लोग हल से परिचित थे। वे कुदाल और फावड़े का प्रयोग खुदाई के लिए करते थे। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
घाघर नदी की तलहटी में अनेक हड़प्पा (आरम्भिक) कालीन बस्तियां प्राप्त हुई है। सोथी और सीसवान से प्राप्त मिट्टी के बर्तन कालीबंगा के बर्तनों से मेल खाते हैं। ऐसा संकेत मिलता है कि राजस्थान के खेतड़ी के तांचे की खानों से तांबा निकालने का काम आरम्भिक हड़प्पा काल से ही शुरू हो गया था।
लूचिस्तान, सिंधु, पंजाब और राजस्थान में छोटी-छोटी कृषक बस्तियां पाई गई हैं। बाद में इन क्षेत्रों में अनेक क्षेत्रीय परम्पराओं का जन्म हुआ।
किन्तु एक प्रकार के बर्तन, सिंग वाले देवता तथा मृणमूर्तियों से पता चलता है कि सांस्कृतिक एकीकरण की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी थी।
इस काल के दौरान किसानों ने सिंधु नदी के मैदानों में अनेक बस्तियां बसाई। वे कांसे और तांबे का प्रयोग करते थे। ईरान में भेड़-बकरियां पाली जाती थी, तो मिस पाठी मि गाम और से ने मारा जाते थे।
यातायात के लिए पशुओं का प्रयोग करते थे। मिट्टी की मातृदेवी की मूर्तिकाएं बनाई गई। इसी प्रकार की घटनाएं मेसोपोटामिया में भी साथ-साथ घटित हो रही थीं।
हड़प्पा सभ्यता : स्रोत BHIC 101 Free Assignment In Hindi
इस सभ्यता के बारे में जानकारी के सबसे अच्ने सोत पुरातात्विक है, जो हदप्या, महिनजोरदाय स्थलों की सुबाई से प्राप्त हुए हैं। इन अवशेषों की गहराई से अध्ययन के उपरांत इस सभ्यता से सम्बद्ध जानकारियां प्रस्तुत की गई हैं। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
अभी तक 1500 से अधिक स्थलों की खोज हो चुकी है, जहां से हड़प्पा सभ्यता के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। हालांकि हड़प्पा सभ्यता के अधिकांश स्थल अभी भी खुदाई का इंतजार कर रहे हैं।
हाकला पारी के गंबेरीबाला तथा पंजाब का फुकस्लान ऐसे स्थल हैं, जो हड़प्या नगर की बराबरी करते हैं। पर्याप्त धन का अभाव सुवाई कार्य में बाधा पहुंचा रहा है।
आरम्भ में हीलर ने लिखा है कि सिंधु घाटी में हडप्पा सभ्यता पूरी तरह विकसित थी तथा इससे पूर्व के लोगों और हड़प्पा में कोई सभ्यता नहीं थी, परन्तु अद्यतन स्रोत इस बात को गलत ठहराते हैं।
हड़प्पा सभ्यता का विकास सिंधु घाटी में तथा उसके आसपास ही हुआ और उसके विकसित होने में काफी समय लगा।BHIC 101 Free Assignment In Hindi
भौगोलिक विस्तार
विद्वानों का मानना है कि इस सभ्यता का केन्द्र बिन्दु हड़प्पा, घग्घर, मोहनजोदड़ो का क्षेत्र है। अधिकांश बस्तियां इसी क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं। इन बस्तियों में कुछ खास किस्म की समानताएं पाई गई हैं। यहां के लोगों के जीवनयापन के तरीके एक से थे। इसकी पश्चिमी सीमाएं शुष्क है।
नौशादी, जुबेड़जोदड़ो, अलीमुराद, सुत्कांगठार, सुटकामोत्त इत्यादि स्थल इसी भाग में पढ़ते हैं। शोर्तुपई जैसी बस्ती जो अफगानिस्तान में पड़ती है. हड़प्पा सभ्यता से अलग-थलग बस्ती थी।
इस सभ्यता की पूर्वी सीमा उत्तर प्रदेश में आलमगीरपुर है। मनपुर, बड़गाव इसी क्षेत्र में थे, जहां की जलवायु उनके अनुकूल थी। उत्तर में मांडा इस सभ्यता की सीमा है। महाराष्ट्र में दैमाबाद तथा गुजरात में भगतराव इस सभ्यता की दक्षिणी सीमा है।
भौगोलिक भिन्नता के कारण गुजरात में बसावट का स्वरूप एक-सा नहीं है। यहां के लोग चावल, ज्वार-बाजरा इत्यादि अनाजों का इस्तेमाल किया करते थे।
इस सभ्यता का विस्तार तत्कालीन मेसोपोटामिया तथा मिस्त्र से भी अधिक था। हालांकि हड़प्पा की बस्तियां घनी नहीं थीं। वे बिखरी हुई थीं। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
राजस्थान और गुजरात के बीच सैकड़ों किमी, रेगिस्तान और दलदल था। शोधोई के | सबसे निकट का हड़प्पाई क्षेत्र भी लगभग 300 किमी. दूर था। इन खाली जगहों में आदिम और खानाबदोश जातियां रहती होंगी।
हड़प्पा के नगरों की जनसंख्या काफी कम थी। इस सभ्यता के सबसे बड़े नगर मोहनजोदड़ो की आबादी लगभग 35,000 थी, जो आज के छोटे से छोटे कस्बे की आबादी से भी कम थी।
हड़प्पा सभ्यता में परिवहन का सबसे तेज साधन बैलगाड़ी था। लोहे से लोग अनभिज्ञ थे। फिर भी उसी पुरानी प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर उन्नत सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था कायम करना उनकी अद्वितीय उपलब्धि थी।
हड़प्पा का हास : पुरातात्त्विक साक्ष्य
नगर नियोजन तथा निर्माण में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा आदि जैसे नगरों का क्रमिक हास हुआ। शहर तेजी से तंग बस्तियों में बदलते गए। पुरातात्त्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि मोतनजोदड़ो के विशाल स्नानागार के अनेक मार्ग अवरुद्ध हो गए। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
बाद में इसका और अन्न भण्डारों का उपयोग पूर्ण रूप से समाप्त हो गया। इसी समय मोहनजोदडो में मणमूर्तियों, मनका. चड़ियों इत्यादि में कमी दिखाई देती है।
साक्ष्यों से पता चलता है कि हड़प्पा परित्याग से पहले एक और जनसमूहां माया मा जितको जानकारी उनके मृतकों के दफनाने की पद्धतियों से मिलती है। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
बतावलपुर क्षेत्रों में हड़प्पाकालीन और उत्तर तड़प्पाकालीन स्थलों के शहरी नमूना के अध्ययन से भी हास के लक्षण दिखते हैं।
ऐसी संभावना है कि की छीन सौ व उवा लिनता के मूल स्थान में अस्तिनों का काम हटाहा भातसमूह या तो नष्ट | हो गए या अन्य क्षेत्रों में चले गए थे।
इस सभ्यता के सुदूर क्षेत्रों जेरात, राजस्थान तथा पंजाब के क्षेत्रों में लोग रहते रहे, किन्तु उनके जीवन में परिवर्तन आ गया। मेसोपोटामिया के साहिता से मिलना म के भन्न ता मयामी का असर कहा जा सकता है कि सिंधु नदी के नगरों का परित्याग 1800 ई.पू. के आसपास हुआ BHIC 101 Free Assignment In Hindi
हड़प्पा परम्परा का प्रसार BHIC 101 Free Assignment In Hindi
पतनोपरांत हड़प्पा समुदाय कृषि समूहों में परिवर्तित हो गया, ऐसा नहीं था। हालाकि राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था में केत्रीय निर्णायन कार्य समाप्त हो गया था।
जो हड़प्पा समुदाय नगर चरण के बाद भी बना रहा. उन लोगों ने जरूर पुरानी परम्पराओं को बनाए रखा। हड़प्पा के पुरोहित अत्यन्त संगचित शिक्षित परम्परा के अंग थे। साक्षरता समाप्त हो गई, तब भी इस बात की संभावना है कि उन्होंने अपनी धार्मिक प्रथाएं बनाए रखी होंगी।
हड़प्पा सभ्यता की भौतिक विशेषताओं के अंतर्गत हड़प्पा सभ्यता की नगर-योजना, मिट्टी के बर्तन, औजार और उपकरण, कला एवं दस्तकारी, लिपि और जीविका के स्वरूप पर विचार किया गया है
1.नगर-योजना– मॉर्टिमर व्हीलर और स्टूआई पिग्ट आदि पुरातत्त्वविदों के अनुसार हड़णा-सभ्यता के नगरों की संरचना और बनावट में एकरूपता थी। प्रत्येक नगर दो भागों में बंटा होता था
(i) एक भाग में ऊंचा दुर्ग था. जिसमें शासक और राजघराने के लोग रहते थे।
(ii) दूसरे भाग में शासित और गरीब लोग रहते थे। वहां के घर, मंदिर, खलिहान और गलियां बिल्कुल वैसी ही हैं जैसी मोहनजोदड़ो की या हड़प्पा सभ्यता के अन्य किसी भी नगर की।
हडप्पा और मोहनजोदड़ों में भवनों और इमारतों के लिए पक्की ईंटों का इस्तेमाल किया गया। कालीबंगन में कच्ची ईंटें प्रयोग की गई। सिंधु में कालदीजी और आमरी जैसी बस्तियों में नगर की किलेबंदी नहीं थी।
गुजरात में स्थित लोथल का नक्शा भी अलग है। यह बस्ती आयताकार थी, जिसके चारों ओर ईंट की दीवार का घेरा था। इसे दुर्ग और निचले शहर में विभाजित नहीं किया गया था। शहर के पूर्वी सिरे में ईंटों से निर्मित कुण्ड था। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
हड़प्पा सभ्यता के निवासी पकी हुई और बिना पकी ईंटों का प्रयोग करते रहे थे। ईंटों का आकार एक जैसा होता था। इससे पता चलता है कि ईटें बनाने का काम बड़े पैमाने पर होता था।
इसी तरह मोहनजोदड़ो जैसे शहरों में सफाई की व्यवस्था उच्चकोरि की भी। परों का बेकार पानी नालियों से होकर बड़े नालों में चला जाता था, जो सड़कों के किनारे एक सीध में होते थे।
कुछ विशाल इमारते- हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और कालीबंगन में किले के क्षेत्रों में बढ़ी विशाल इमारतें थीं। इनका प्रयोग विशेष कार्यों के लिए किया जाता होगा।
ये इमारतें कच्ची इंटों से बने ऊंचे-ऊंचे चबूतरों पर खड़ी की गई थीं। इनमें से एक इमारत, मोहनजोदड़ो का प्रसिद्ध ‘विशाल स्नान कुण्ड’ है। ईंटों से बने इस कुण्ड की लम्बाई-चौड़ाई 12 मी. x 7 मी. और गहराई 3 मीटर है। इस तक पहुंचने के लिए दोनों तरफ सीढ़ियां हैं।
कुण्ड के लिए पानी पास ही एक कक्ष में बने बड़े कुएं से आता था। कुण्ड के चारों तरफ मण्डप और कमरे बने हुए थे। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
मोहनजोदड़ो के किले के टीले में पाई गई एक और महत्त्वपूर्ण इमारत अन्न-भण्डार है। इसमें इंटों से निर्मित सत्ताईस खण्ड हैं, जिसमें प्रकाश के लिए आड़े-तिरछे रोशनदान बने हैं।
अन्न भण्डार के नीचे ईंटों से निर्मित खांचे थे, जिनसे अनाज को भण्डारण के लिए ऊपर पहुंचाया जाता था।
विशाल स्नान-कुण्ड के एक ओर एक लम्बी इमारत (230 x 78 फुट) है। यह किसी बड़े उच्चाधिकारी का निवास स्थान रहा होगा। इसमें 33 वर्ग फुट काबुला आँगने और उस पर तीन बरामदे खुलते है।
एक सभा की भी जिसमें पांच पानांहों की ऊंचाई की चार चबूतरों की पंक्तियां थीं। यह ऊंचे चबूतरे ईंटों के बने हुए थे। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
उन पर लकड़ी के खंभे खड़े किए गए थे। इसके पश्चिम की ओर कमरों की एक कतार में एक पुरुष की प्रतिमा बैनी ई महामें पार्क गई हड़प्पा के अन्न भण्डार में एक क्रम में इटों के चबूतर बन हुए थजी अन्न भंडारी के लिए नीव का काम करते थे। इन पर बने अन्न-भंडारों की दो कतारें थीं।
प्रत्येक कतार में छः अन-भंडार थे। फर्श की दरारों में पाया गया गेहूं और जौ का भूसा यह सिद्ध करता है कि इन गोल चबूतरों का प्रयोग अनाज गाहने (अनाज से भूसी अलग करने) के लिए होता था।
कालीबंगन में की गई खुदाई में सबसे महत्त्वपूर्ण खोज है, अग्नि-कुण्डों का पाया जाना। यहां इंटों के बने बहुत से चबूतरे पाए गए हैं। एक चबूतरे पर एक पंक्ति में बने सात ‘अग्नि-कुण्ड’ और एक गड्ढे में पशुओं की हड्डियों तथा मृगशृंग की प्राप्ति हुई है।
घरों की बनावट- सामान्य नागरिक निचले शहर में भवन समूहों में रहा करते थे। एक कोठरी वाले मकान दासों के रहने के लिए थे। हड़प्पा में अन गंडार के नजदीक भी इसी तरह के मकान पाए गए हैं।
दूसरे मकानों में आंगन और बाहर तक कमरे होते थे। अभि क बड़े मकानों में कुएं, शौचालय एवं गुसलखाने भी थे। इन मकानों में एक चौरस प्रांगण और चारों तरफ कई कमरे होते थे। घरों में प्रवेश के लिए संकीर्ण गलियों से जाना पड़ता था।
मुर्गों की हड्डियां भी मिली हैं। जंगली जानवरों की हड्डियां भी बड़ी संख्या में पाई गई हैं। उनमें हिरण, गैडे, कछुए आदि की हड्डियां सम्मिलित हैं।
हड़प्पा काल में लोग घोड़ों के विषय में अनभिज्ञ लगते हैं। हड़प्पा सभ्यता की बस्तियों में गेहूं की दो किस्में अधिक पाई गई हैं। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
अन्य फसलों में खजूर और फलदार पौधों की किस्में सम्मिलित हैं, जैसे कि पटर इस काल में सरसों और तिल की फसल भी सम्मिलित थी। लोथल और रंगपुर में चिकनी मिट्टी में और मिट्टी के बर्तनों में चावल की भूसी दबी हुई मिली है। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
मोहनजोदड़ो में सूती कपड़े का एक टुकड़ा पाया गया है। इससे प्रकट होता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग कपास की खेती करने और कपड़े बनाने-पहनने की कला में निपुण हो चुके थे।
कालीबंगन में खांचेदार खेत के प्रमाण यह स्पष्ट करते हैं कि हड़प्पा सभ्यता के लोग लकड़ी के हल का प्रयोग करते थे। इस प्रकार हड़प्पा-युग में जीवन-निर्वाह की व्यवस्था अनेक प्रकार की फसलों, पालतू पशुओं और जंगली जानवरों पर निर्भर थी। इस विविधता के कारण ही जीवन निर्वाह व्यवस्था दृढ थी।
वे प्रतिवर्ष एक साथ दो फसलें उगा रहे थे। इससे अर्थव्यवस्था इतनी दृढ़ थी कि नगरों में रहने | वाली और अपने लिए अन्न का उत्पादन खुद न करने वाली बड़ी जनसंख्या का वे भरण-पोषण कर सकते थे।
प्रश्न 4. महाबलिक से लेकर उत्तरवैविक चरण तक धर्म, समाज और अर्थव्यवस्था में हुए परिवर्तनों की व्याख्या करें।
उत्तर-ऋग्वैदिक काल
अर्थव्यवस्था-प्रारम्भिक वैदिक काल में पशुपालन के महत्त्व का ऋग्वेद साक्ष्यों की काफी बड़े स्तर पर वर्णन हुआ है। अग्वेद में बहुत-सी भाषागत अभिव्यक्तियां गाय (गी) से जुड़ी हैं। इस काल में संघर्ष एवं लड़ाईयों के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया गया था वे थे गिविष्ट, गवेशना, गवयत आदि।
प्रथम शब्द का अर्थ है गाय की खोज करना। ये शब्द स्पष्ट करते हैं कि पालतू पशुओं पर अधिकार समुदायों का होता था। कभी-कभी इसे लेकर कबीलों के बीच युद्ध छिड़ जाते थे।
ऋग्वेद में पानि शब्द का प्रयोग हुआ जो वैदिक जनों के शत्रु थे। आर्यों के धन विशेषकर गायों को पर्वतों तथा जंगलों में छिपा लिया जाता था। इन पशुओं को छुड़ाने के लिए वैदिक देवता इन्द्र की पूजा की जाती थी।
यह भी बताते है कि पानी का अपहरण किया जाता था पिमुखिया को गौपति कहा जाता था, जो गायों की | रक्षा करता था। ऋग्वेद में गोधुली शब्द का प्रयोग किया गया है। पुत्री को दुहिता कहा गया है।
ये सारे शब्द गौ से बना हुए हैं और इससे लगता है कि ऋग्वजमातीन जीयम का महत्वपूर्ण काम मी मालमा है। गोशाला, दोध लत्पादन और माला-भानवर का काम माहित्यिक सन्दर्भ श्लोकों एवं प्रार्थनाओं में पाये गये हैं।
समाज- वैदिक समाज केसीलाई मोमाज भा। वह जातीय एवं पारिरिक सम्बन्धों पर आधारित था। विभिन्न व्यावसायिक गुट अर्थात मुखिया, गुरोशित, कारीगर भारि जन समुन्नाग के निम्मी कनीकी के लिए ‘जन’ पानों के नम रानाभों के मजर्भ मिलते हैं। जैसे ‘जापान युद्ध’ का वर्णन ऋग्वेद से हुआ है।
इसी वर्णन में कुछ जनों के नाम हैं। जैसे-भरत, पुरु, यदु, अनू और तुरवास। जैसा कि पहले भी कहा गया है कि युद्ध अपहरण एवं पशुओं की चोरी को लेकर होते रहते थे। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
जन का मुखिया राजा या गोपति होता था। परिवार समाज की प्राथमिक इकाई था। कुलप अर्थात् परिवार का सबसे बड़ा पुरुष परिवार का मुखिया था, जो परिवार की रक्षा करता था।
समाज, पितृसत्तात्मक था। पुत्र की प्राप्ति लोगों की सामान्य इच्छा थी। पुरुष को महत्व दिया जाता था। इसका पता उन श्लोकों में लगता है, जिनको पुत्र प्राप्ति के लिये लगातार प्रार्थना में प्रयोग किया जाता था। समाज में महिलाओं का भी काफी महत्त्व था। वे शिक्षित थीं तथा सभाओं में भाग लेती थीं।
ऐसे महिलाओं के दृष्टांत मिले हैं। अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार था। विवाह भी देर से कर सकती थीं। महिलाओं को पिताओं, भाताओं और पतियों पर निर्भर रहना पड़ता था। शिक्षा का मौखिक रूप से आदान-प्रदान किया जाता था। शिक्षा की परम्परा कम थी। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
ऋग्वेद की रचनाओं में स्वयं को अन्य मानव समुदायों, जिन्हें उन्होंने बास और बस्यू कला, से पृथक रखा। नामों के लिए काला मोठा होठों वाला, चपटी नाक वाला, लिंग पूजक भाषा का प्रयोग किया जाता था।
वे पशुधन स्वामी थे। वे लोग धन तथा पशुओं के स्वामी थे। | ‘पणि’ शब्द का प्रयोग व्यापारियों की धन सम्पत्ति के लिए किया जाता था। वे लोग जातियों एवं भाषाओं के रूप में नहीं बंटे थे।
ऋग्वेद का सबसे बड़ा नेता सुदास था, जिसने “10 राजाओं” की लड़ाई में भरत कुल का नेतृत्व किया था। उसके नाम के अन्त में प्रयुक्त दास शब्द से लगता है कि उसका दासों से कुछ सम्बन्ध था। एक क्षेत्र में कई समुदायों की उपस्थित के कारण ही वर्ण व्यवस्था का प्रादुर्भाव BHIC 101 Free Assignment In Hindi
धर्म- आर्य प्राकृतिक शक्तियों जैसे-जल, वायु, वर्षा, बादल, आग पर दैवी शक्ति का आरोपण करके मानव रूपों में उनकी उपासना करते थे। देवियों की आराधना बहुत कम होती थी। इंद्र शक्ति का देवता था। उसकी उपासना शत्रुओं का नाश करने के लिए की जाती थी।
वह बादलों का भी देवता भा। इस कारण वर्षा के लिए उसकी प्रार्थना की जाती भी। बरुण जल का बेवता था तथा प्राकृतिक व्यवस्था का रक्षक भी था। मृत्यु का देवता यम था।
अन्य दूसरे देवता सूर्य, सावित्री. सोम, स्त्र आदि थे। यत धर्म काल्पनिक अनुष्ठानों पर आधारित नहीं था, बल्कि बलि और स्लोकों के माध्यम से देवताओं से सीधा सम्पर्क स्थापित करने पर बल दिया जाता था।
आयों और उनके देवताओं के मध्यस्थ का काम अग्नि का था। ऐसा विश्वास था कि ठबन में जो बलि दी जाती है, वह अग्नि के माध्यम से सीधे देवताओं को मिल जाती है।
उत्तर वैदिक काल
अर्थव्यवस्था- दोआब और मध्य गंगा घाटी की उपजाऊ जमीन के कारण कृषि का विकास आसान हो गया। कृषि की पैदावार बढ़ने लगी, किन्तु पशुपालन अभी भी जारी रहा। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
स्रोतों से पता चलता है कि लोग खाने में चावल का प्रयोग करते थे। वैदिक साहित्य में व्रीही (चावल), तंदुला तथा सलि जैसे शब्दों का प्रयोग इसकी पुष्टि करता है। फसल चक्र का प्रयोग होने लगा था।
अच्छी पैदावार के कारण राजसूय यज्ञ में दूध, भी तथा पशुओं के साथ अनाज भी चलाया जाने लगा। साहित्य में 812. तथा 20 बैल तक जोते जाने के प्रमाण मिलते हैं।
इस काल में पशुपालन जीवनयापन का प्रमुख साधन नहीं रहा। इसका स्थान अब कृषि ने ले लिया। मिश्रित कृषि अर्थव्यवस्था का प्रचलन हो गया। रोपाई द्वारा धान पैदा करने की जानकारी अभी तक पता नहीं थी। मिश्रित कृषि के कारण जीवन स्थाई व्यतीत होने लगा।
उत्तर वैदिक काल में अनुष्ठान का सदस्य साफ चलाया अब अनुष्ठान अनिल जो वाया। इस कारण अब काल ली लोग ही इसे सम्पन्न करा सकते थे।
सामूहिक भावना में कमी आई तथा बलि का उद्देश्य समुदाय पर नियन्त्रण प्राप्त करना हो गया। अब पूरे समुदाय को नहीं, बल्कि केवल ब्राह्मणों को उपहार मिलता था, जो अनुष्ठान करवाते थे।
भूमि का बढ़ता महत्त्व- भूमि पर धीरे-धीरे परिवार का स्वामित्व होने लगा। वैश्य समाज का उत्पादक वर्ग था। क्षत्रिय तथा ब्राह्मण उत्पादन में प्रत्यक्ष रूप से हिस्सा नहीं लेते थे।
इनके लिए उत्पादन वैश्य ही करते थे। जीवन निर्वाह करने वाले खाद्य पदार्थ क्षत्रिय और ब्राह्मणों के बीच बँट जाते थे। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
राजनीति और समाज- अब कबीलाई संस्था का स्थान क्षेत्रीय पहचान ने ले लिया। मुखिया की प्रकृति में भी व्यापक परिवर्तन आया। समाज जटिल होने लगा।
राजनीति- दस काल में जन की जगह जनपद का प्रयोग होने लगा। ‘राष्ट्र’ शब्द का भी प्रयोग होने लगा था, किन्तु इसका अर्थ अभी निश्चित नहीं हुआ था। कबीले अब क्षेत्रीय पहचान बन गए।
उदाहरण के लिए कुरु तथा पांचाल एक में मिल गए। राजा या मुखिया केवल पशुओं की लूट में सम्मिलित नहीं होता था, बल्कि वह उस क्षेत्र का रक्षक हो गया था। समिति की अपेक्षा सभाएँ अधिक शक्तिशाली हो गई।
अब लड़ाइयाँ लूट के लिए नहीं, अपितु आधिपत्य स्थापित करने के लिए लड़ी जाने लगीं। ब्राह्मणों का महत्व बढ़ गया क्योंकि वे क्षत्रियों का अनुष्ठान कर राजा को वैद्यता प्रदान करते थे।
समाज-अब चार वर्ण व्यवस्था स्पष्ट रूप से सामने आई। समाज अब असमानता पर आधारित हो गया। ब्राह्मण समाज में सबसे उच्च तथा शूद्र स्वसे निम्न थे।
सगोत्र विवाह अनुष्ठानों की पवित्रता के नियम कठोर हो गए। भौगोलिक केन्द्र परिवर्तन के कारण वैदिक जनों का सामना अन्य लोगों से हुआ।
इनमें लम्बे आदान-प्रदान के बाद एक मिलाजुला समाज अस्तित्व में आया। इसी काल में गोत्र संस्था का उदय हुआ। सगोत्र विवाह अमान्य हो गए। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
इस काल में पितृसतात्मक परिवार अच्छी प्रकार से स्थापित हो चुका था। ब्रह्मचर्य, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ तथा संन्यास-आश्रम प्रचलित थे। संन्यास संभवतः पूरी तरह विकसित नहीं हो सका था।
धर्म-अथर्ववेद से पता चलता है कि धर्म विभिन्न संस्कृतियों तथा वैदिक मान्यताओं का मिला-जुला रूप था। ‘बलि’ धर्म का अभिन्न अंग था। यज्ञों में आहुति दी जाती थी।
पुरोहितवाद-जटिल अनुष्ठानों को सम्पन्न कराने के लिए व्यावसायिक लोगों की आवश्यकता थी जो इस कार्य में निपुण हों। इस प्रकार एक नई सामाजिक व्यवस्था पुरोहितवाद की उत्पत्ति हुई।
वह विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान करवाता तथा यज्ञों को सम्पन्न करवाता था। इसके बदले में उसे अपार धन की प्राप्ति होती थी।
उत्तर वैदिक काल के देवता- इस काल में इन्द्र और अग्नि का महत्त्व कम हो गया। प्रजापति महत्त्वपूर्ण देवता हो गया। रूद्र का महत्त्व बढ़ गया।
विष्णु को सृष्टि का रचयिता तथा संस्थापक समझा जाने लगा। पूषण अब शूद्रों का देवता हो गया, पहले वह पशुओं की रक्षा करता था। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
लोक परम्परा- अथर्ववेद से लोक परम्पराओं को विशालता का पता चलता है। यह समाज में व्याप्त विश्वासों और अन्धविश्वासों पर आधारित ग्रंथ है। देवताओं की स्तुति अब छाट और व्यक्त्तिात मिलाकामना सेतु की जाती थी बहुत सारे देवता, राक्षस तथा पिशाच सबकी स्तुति की जाती थी।
मंत्र-तन्त्र तथा जादू-टोना पर लोगों का विश्वास था। इस काल में ब्राह्मणों के विरुद्ध एक कड़ी प्रतिक्रिया हुई। इसका मूर्त रूप उपनिषदों में दिखाई देता
प्रश्न 5. मौर्य प्रशासन का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर-केन्द्रीय प्रशासन-मार्थ सामाज्य का प्रणासन कार्ड और प्रान्तीय क्षेत्रा से लेकर सीबी तक निक प्रशासिक इमाश्यों में विभाजित | था। केन्द्रीय प्रशासन को निम्नलिखित भागों में बांटा गया था
राजा- शासन का केन्द्र बिन्दु राजा होता था। अत: इतने बड़े सामान्य के शासन संचालन के लिए यह आवश्यक था कि राजा उत्साही, स्फूर्तिवान, उद्यमी और प्रजाहित कार्यों के लिए सदा तत्पर हो।
राजा ही राज्य की नीति निर्धारित करता था और अपने अधिकारियों को राजाज्ञाओं द्वारा समय-समय पर निर्देश दिया करता था। अधिकारियों की नियुक्ति देश की आन्तरिक रक्षा और शांति, युद्ध संचालन, सेना का नियन्त्रण आदि सभी राजा के आधीन था। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
यदि किसी समस्या के सुलझाने में नीति शास्त्र और राज्य के कानून में मतभेद होता था तो राजा के कानून को ही मान्यता मिलती थी। राजा ही राज्य का कानून निर्माता, प्रशासक, सर्वोच्च न्यायाधीश और सेनापति होता था
उसके मुख से निकला हर शब्द कानून तथा उसकी शक्ति असीमित और निरंकुश थी। उसकी वैधानिक शक्तियों पर नैतिकता और परम्पराओं का बहुत बड़ा अकुंश था।
प्रशासन का क्षेत्रीय तथा स्थानीय इकाइयां :
मौर्यों का प्रशासन केन्द्रीकृत था। सारे अधिकार और शक्तियां राजा के पास थीं। किन्तु इतने बड़े साम्राज्य को एक स्थान से नियन्त्रित नहीं किया जा सकता था, इसलिए मौयों ने स्थानीय स्तर पर भी प्रशासनिक इकाइयां बनाई।
प्रान्तीय प्रशासन- प्रान्तीय गवर्नर या वायसराय राजकुमार या राजा का कोई संबंधी होता था. उदाहरण के लिए अशोक तक्षशिला का गवर्नर था।
प्रशासन में गर्वनर की सहायता महामात्य तथा एक मंत्रिपरिषद करती थी। रूद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख से पता चलता है कि अशोक के समय वहां का युवराज तुशस्य था।
इसी प्रकार अशोक के शिलालेखों में चार राजधानियों का उल्लेख मिलता है। मंत्रिपरिषद का राजा से सीधा सम्पर्क था। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
जनपद तथा ग्रामीण प्रशासन- प्रशासन, नागरिक स्तर पर होता था तथा इसके संगठन में कई गांव हाते थे। प्रदेष्ट जनपद स्तर के अधिकारी होते थे। राजुक और युक्त अन्य अधिकारी थे।
राजा इनसे सीधा सम्पर्क कर सकता था। ग्रामीण स्तर पर स्थानीय लोग होते थे, जिन्हें ग्रामिक कहा जाता था। गोप और स्थानिक जनपद और गांवों के बीच मध्यस्थता का काम करते थे। गांव की सीमा निर्धारण, आय व्यय को दर्ज करना, राजस्व का हिसाब रखना इनका ही काम था।
सत्रीय कार्य - II
प्रश्न 6. पुरापाषाणकालीन कला
उत्तर-लगभग 20 लाख वर्ष पहले से लेकर लगभग 10 हजार वर्ष पहले तक का काल पुरातत्व की भाषा में पुरापाषाण युग कहलाता है
पूर्व पुरापाषाण की पहचान प्राय: दो प्रकार के औजारों की उपस्थिति से की जाती है- (i) गंडासा (चोपर) और (ii) कुल्हाड़ी।
- गंडासे को विशेषकर गैर-भारतीय संदर्भ में कलाड़ी से पहले माना जाता है।
- मध्य पुरापाषाणकालीन औजारों की पहचान शल्कों (Flake) से होती है। यहां औजार अधिकतर करेदने व छीलने वाले होते थे।
- उत्तर पुरापाषाण युग में धार वाले (Blade) औजारों का अधिक चलन था।
(i) पूर्व पुरापाषाण में स्फटिक (quartrite) पत्थर का अधिक प्रयोग था।
(ii) मध्य पुराणाधाण में जिस्मा का अधिक प्रयोग था
पूर्व और मध्य पुरापाषाण युगों में औजार बनाने की प्रौद्योगिकी अपेक्षाकृत सरल थी। शल्कों को मूल अश्म पिण्डों अर्थात पत्थरों के टुकहाँ से पृथक् कर दिया जाता है। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
पूर्व पुरापाषाण युग में गंडासे जैसे औजारों को सिरों पर हीला जाता था, कुल्हाड़ी या हस्तकुठारों को दोनों आर से छीले गए (द्विमुखी) औजार भी कहा जाता था।
औजार बनाने की प्रौद्योगिकी में वास्तविक परिवर्तन शायद मध्य पुरापाषाण काल से, पर अधिक स्पष्ट रूप में उत्तर पुरापाषाण काल से आता है। उस युग में अश्म पिहों को सावधानीपूर्वक तैयार किया जाता था,
जिससे कि पत्थर के एक ही टुकड़े से अनेक फलक निकाले जा सकें। इसके लिए महीन दाने वाले पत्थरों को प्रयुक्त किया जाता था। इसकी उपयोगिता इस प्रकार थी
- तेज धार वाले औजार बन जाते थे।
2 इस प्रौद्योगिकी से थोक उत्पादन भी हो जाता था। - इसमें औजार बनाने के अधिक सक्षम तरीके का प्रयोग होता था।
उत्तर पुरापाषाणकाल के औजार प्रचुर थे। उनका उपयोग विभिन्न कामों के लिए किया जा सकता था। इसी काल में औजार बनाने में हड्डी का प्रयोग भी हुआ।
औजारों के आकार का धीरे-धीरे छोटा होता जाना पुरापाषाण काल की विशेषता है। सबसे बड़े औजार पूर्व पुरापाषाण काल में मिलते हैं। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
ये मध्य भारत के स्थलों; जैसे-भीमबेटका अथवा होशंगाबाद जिले के आदमगढ़ पहाड़ी क्षेत्र में पाए गए हैं। जहां पूर्व और मध्य पुरापाषाणकाल के इंसानों के व्यवसायों की पहचान अधिकाधिक छोटे आकार के औजारों से होती है।
पुरापाषाण काल के औजार अनेक संदों में उपलब्ध होते हैं
(i) खुले में अथवा पत्थर के आवास स्थलों में।
(ii) कच्चे माल के स्रोतों के निकट कारखाना स्थल में, जहां औजार निर्मित किए जाते थे।
(ii) आवास स्थल और कारखाना स्थल।
(iv) औजारों का विस्तार।
(v) नदियों के तटों पर खंडों में।
इन औजारों की उपलब्धि से पुरापाषाणयुगीन मनुष्य के वास्तविक आवास क्षेत्रों का संकेत नहीं मिल पाता पर इससे नदी के बहाव से आ जाने वाले हथियारों का पता चलता है।
अधिक खुले क्षेत्रों की अपेक्षा पत्थर के बसेरों से बेहतर साक्ष्य मिल पाते हैं, क्योंकि वहां प्रारंभिक मानव काफी समय तक रहा होगा।
भौगोलिक दृष्टि से भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ विशिष्ट क्षेत्रों की प्रारंभिक मानव अपने निवास के लिए अधिक पसंद करते होंगे जैसे BHIC 101 Free Assignment In Hindi
- पत्थरों वाले क्षेत्र जहां उन्हें औजारों के लिए कच्चा माल मिल जाता होगा।
- पानी वाले क्षेत्र आदि।
वे घनी वनस्पति वाले ऐसे क्षेत्रों से बचते रहे होंगे; जैसे-केरल में हैं। यही कारण है कि पुरापाषाण स्थल हमें प्रायः निम्न स्थानों पर | मिलते हैं
- हिमालय की तलहटी में।
- मध्य भारत की पहाड़ियों की सीमा से लगे गंगा का किनारी पर
- थार रेगिस्तान के किनारों पर और
- अधिकांश मध्य तथा प्रायद्वीपीय भारत में
पुरापाषाण और मध्यपाषाण का एक अन्य साक्ष्य वह कला है, जो निम्न पर पाई गई है-
1, पाषाण (पत्थरों) पर खुदाई,
2 पत्थरों की कटाई.
- गुफाओं के भित्तिचित्र,
- चट्टानी बसेरे।
भौगोलिक दृष्टि से ये उन क्षेत्रों तक सीमित हैं, जहां शैल समूह उपलब्ध हैं। जैसे-मध्य भारत के विस्तृत बलुआ पत्थर के समूह, जहां ऐसे बसेरे प्रायः पाए जाते हैं, जिनमें चित्रकारी की गई है।
मध्य भारत के अतिरिक्त उत्तर भारत में लद्दाख में खुदाई किए हुए पत्थर पहले ही मिल चुके हैं। सुबाह्य (Portable) कला वस्तुएं भी प्राप्त हुई हैं; जैसे
(i) राजस्थान से मिले शुतुरमुर्ग के सन्जित अंडे, जो रेडियो कार्बन गणना के अनुसार लगभग 40000 वर्ष ई.प. के हैं।
संग्रहण के दृश्यों पर कान्द्रत हा शिकार के चित्रण का यथाथ शिकार को प्रभाविता के अब म देखा गया है अथात चित्रण में जानवर का मारने से यही बात व्यवहार में भी सुनिश्चित होगी। प्रारंभिक चित्रकारी की सही तिथि निश्चित करना कठिन है। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
सही तिथि का पता करना कठिन होने पर भी सापेम तिथियों को सरलतापूर्वक ज्ञात किया जा सकता है। कारण मत्त है कि चित्रकारी प्रायः एक के ऊपर एक की गई है।
अत: यह ज्ञात करना संभव है कि कौन-सी चित्रित सतह पहले की है, पर प्रत्येक सतह की तिथियों का अथवा प्रत्येक सतह के मध्य व्यतीत हुए समय का पता लगाना कठिन है।
जिन गुफा बसेरों में बसावटी निक्षेप हैं, उनका उत्खनन कर चित्रकारियों का सम्बन्ध डिपाजिट (निक्षेप) से जोड़ा जा सकता है।
उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश के एक प्रसिद्ध गुफा आश्रय परिसर भीमबेटका में एक बसेरे में प्राप्त चित्रों का निर्धारण उत्तर पुरापाषाण काल में किया गया, क्योंकि वे हरे वर्णक (Pigment) में चित्रित थे।
इसका सम्बन्ध हरे वर्णकों के उन टुकड़ों के आधार पर जोड़ा गया था. जो बसेरे के भीतर बसावटी (Occupation) सतहों में उपलब्ध हुए थे। इन्हें उत्तर पुरापाषाण प्रागैतिहासिक चित्रकारी का संकेतक माना. किंतु प्रारंभिक चित्र लाल रंग में भी पाए गए हैं।
प्रश्न 7. उत्तर भारत की दो प्रसिद्ध लौह युग संस्कृतियाँ
उत्तर-लोहे की प्राचीनता के सम्बन्ध में साहित्यिक उल्लेखों की पुष्टि पुरातात्विक प्रमाणों से होती है। अहिच्छत्र, अतरजीखेड़ा, आलमगीरपुर, मथुरा, रोपड़, आवस्ती, काम्पिल्य भादि स्थलों के उत्खननों में लौह युगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
इस काल का मानव एक विशेष प्रकार के मृद्भाण्डों का प्रयोग करता था जिन्हें चित्रित धूसर भाण्ड कहा गया है। इन स्थानों से लोहे के औजार तथा उपकरण यथा तीर, भाला, खुरपी चाकू, कटार, बसुली आदि मिलते हैं
अतरंजीखेड़ा की खुदाई से धातु शोधन करने वाली भट्टियों के अवशेष मिले हैं। इस संस्कृति का काल ई.पू.1000 माना गया है।
पूर्वी भारत में सौनपुर, चिरांद आदि स्थानों पर की गई खुदाई में लोहे की बर्छिया, छैनी तथा कीलें आदि मिली हैं जिनका समय ई.पू.800 से ई.पू.700 माना गया है।
लौह कालीन प्रारंभिक बस्तियां
सिन्धु- गंगा विभाजक तथा ऊपरी गंगा घाटी क्षेत्र- चित्रित धूसर भाण्ड संस्कृति इस क्षेत्र की विशेषता है। अहिच्छत्र, आलमगीरपुर, अतरंजीखेड़ा, हस्तिनापुर, मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती, नोहे, काम्पिल्य, जखेड़ा आदि से इस संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
चिधित धूसर भाण्ड एक महीन चूर्ण से बने हुए हैं। से चाक निर्मित हैं। इनमें अधिकांश प्याले और तस्तरिया हैं। मृद्भाण्डों का पृष्ठ भाग चिकना है तथा रंग भूसर से लेकर राख का वर्ग के बीच का है।
खेती के उपकरणों में जखेड़ा में लोहे की बनी कुदाली तथा हसिया प्राप्त हुई हैं। हस्तिनापुर के अतिरिक्त अन्य समस्त क्षेत्रों में लोहे की वस्तुएं मिली हैं। अतरंजीखेड़ा से लोहे की 135 वस्तुएं प्राप्त की गई हैं।
हस्तिनापुर तभा अतरंजीखेड़ा में उगाई जाने वाली फसलों के प्रमाण मिले हैं। हस्तिनापुर में केवल चावल और अजरंजीखेड़ा में गेहूँ और जौ के अवशेष मिले हैं। हस्तिनापुर से प्राप्त पशुओं की हड़ियों में घोड़ी हड्डियां भी हैं।
2 मध्य भारत- मध्य भारत में नागदा तथा एरण इस सभ्यता के प्रमुख स्थल है। इस युग में इस क्षेत्र में काले भाण्ड प्रचलित थे। पुराने ताम्रपाषाण युगीन तत्त्व इस काल में भी प्रचलित रहे।
3 इस स्तर से 112 प्रकार के सूक्ष्म पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। कुछ नए मुद्भाण्डों का भी इस युग में प्रचलन रहा। पर कच्ची इंटों से बनते थे। ताम्बे का प्रयोग कोटी वस्तुओं के निर्माण तक सीमित था।
नागदा से प्राप्त लोहे की वस्तुओं में बुधारी, सुरी, कुल्हाड़ी का खोल, चम्मच, चौड़े फलक बाली कुल्हाड़ी, अंगूठी, कील, तीर का सिरा, भाले का सिरा, चाकू, दरांती इत्यादि सम्मिलित हैं। एरण में लोहयुक्त स्तर की रेडियो कार्यन तिथियां निर्धारित की गई हैं जो ई.पू.100 से ई.पू. 800 के बीच की है।
मध्य निम्न गंगा क्षेत्र- इस क्षेत्र के प्रमुख स्थल पाण्डु राजार ढिबि, महिषदल, चिरण्ड, सोनपुर आदि हैं। यह अवस्था पिछली ताम्र-पाषाण-कालीन अवस्था के क्रम में आती है, जिसमें काले-लाल मृद्भाण्ड देखने को मिलते हैं।
लोहे का प्रयोग नई उपलब्धि है। महिषदल में लौहयुक्त स्तर पर सूक्ष्म पाषाण उपकरण भी पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। यहाँ से धातु-मल के रूप में लोहे की स्थानीय ढलाई का प्रमाण मिलता है। महिषदल में लोहे की तिथि ई. पू. 750 लगभग की है। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
प्रश्न 8. दर्शन की छह प्रणालियाँ
उत्तर-वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन अधिक प्रसिद्ध हैं। ये सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त के नाम से विदित है। इनके प्रणेता कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनि और बादरायण थे।
इनके आरंभिक संत उपनिषदों में भी मिलते हैं। प्रत्येक दर्शन का आधारग्रंथ एक दर्शनसूत्र है। “सूत्र” भारतीय दर्शन की एक अद्भुत शैली है। गिने-चुने शब्दों में सिद्धांत के सार का संकेत सूत्रों में रहता है।
संक्षिप्त होने के कारण सूत्रों पर विस्तृत भाष्य और अनेक टीकाओं की रचना हुई। भारतीय दर्शन की यह शैली स्वतंत्र दर्शनग्रंथों की पश्चिमी शैली से भिन्न है।
गुरु-शिष्य परंपरा के अनुकूल दर्शन की शिक्षा और रचना इसका आधार है। यह परंपरा षड्दर्शनों के बाद नवीन दर्शनों के उदम में पाक रही। ब्याख्माओं के प्रसंग में कुछ नबीनता और मतभेद के कारण मुख्य दर्शनों में उमभेव अवस्म पैदा हो गए।
प्रमाणविचार, सृष्टिमीमांसा और मोक्षसाधना षड्दर्शनों के सामान्य विषय हैं। ये छः दर्शन किसी न किसी रूप में आत्मा को मानते हैं। आत्मा की प्राप्ति ही मोक्ष है।
पुनर्जन्म, आचार, योग आदि को भी ये मानते हैं। न्याय, योग आदि कुछ दर्शन ईश्वर में विश्वास करते हैं। सांख्य और मीमांसा दर्शन निरीश्वरवादी हैं। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण सामान्यत: सभी दर्शनों को मान्य हैं। मीमांसा मत में अापत्ति और अनुपलब्धि ये दो प्रमाण और माने जाते हैं।
प्रश्न 9. प्राचीन भारत में जल विज्ञान
उत्तर-हमारे देश में जल संसाधनों के प्रबन्धन का इतिहास बहुत पुराना है।
प्राचीन काल से ही भारतीय भागीरथों ने सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ भारत की जलवायु, मिट्टी की प्रकृति और अन्य विविधताओं को ध्यान में रखकर बरसाती पानी, नदी-नालों, झरनों और जमीन के नीचे मिलने वाले, भूजल संसाधनों के विकास और प्रबन्धन के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की थी।
जल संसाधनों से जुड़ा यह प्रबन्धन वर्षा के अधिकांश विमा कक बर्फ स तक लदाय से लेकर दक्षिण के पठार तथा थार के शुष्क मरुस्थल से लेकर अति वर्षा वाले उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की विशिष्ट और स्थानीय परिस्थितियों के लिये उपयुक्त था।
इन सभी स्थानों पर वहाँ की जलवायु और पानी अथवा बर्फ की उपलब्भता को दृष्टिगत रखते हुए असा सूचक, उसके निस्तार और सिंचाई में उपर्याग के तौर-तरीके खोजे गए थे। तथा समय की कसौटी पर खरी विधियाँ विकसित की गई थीं। . BHIC 101 Free Assignment In Hindi
इन उपलब्धियों के पुल प्रमाण देश के कोने कोने में उपतम्भ है। वस्तुतः ये प्रमाण भारतीय भागीरथों के उन्नत ज्ञान दूरदृष्टि और परिस्थितियों की बेहतरीन जानकारी को दशांत है तथा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी प्रासंगिक हैं।
जल प्रबन्धन का पहला प्रमाण सिंधु पारी में खुदाई के दौरान मिला। धौराबीरा में अनेक जलाशमों के प्रमाण भी मिले हैं। इस क्षेत्र में बाढ़ के पानी की निकासी की बहुत ही अच्छी व्यवस्था की गई थी।
इसी प्रकार कुएं बनाने की कला का विकास भी हड़प्पा काल में हुआ था। इस क्षेत्र में हुई खुदाई तथा सर्वेक्षणों से विदित हुआ है कि वहाँ हर तीसरे मकान में कुआं था।
ईसा के जन्म से लगभग 300 वर्ष पूर्व कच्छ और बलूचिस्तान के लोग बाँध बनाने की कला से परिचित थे। उन्होंने कंकड़ों और पत्थरों की सहायता से बहुत ही मजबूत बाँध बनाए थे और उनमें वर्षाजल को संरक्षित किया था
बाँधों में संरक्षित यह पानी पेयजल और सिंचाई की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये काम में लाया जाता था और लोग बांध में एकत्रित पानी के प्रबन्धन में दक्ष थे।
चन्द्रगुप्त मौर्य (ईसा से 321-297 वर्ष पूर्व) के कार्यकाल में भारतीय किसान सिंचाई के साधनों, यथा-तालाब, बाँध इत्यादि से न केबल परिचित था बरन वर्षा के लक्षण, मिट्टी के प्रकार और जल प्रबन्धन के तरीकों को भी अच्छी तरह से जानता था। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
उस काल के लोग बाढ़ नियंत्रण के कार्य से भी अच्छी तरह परिचित था उन्होंने इसा के जन्म से एक शताब्दी पूर्व इलाहाबाद के पास गंगा की बान से बचने के लिये नहरों और तालाबों की एक दूसरे से जुड़ी संरचनाएँ बनाई थीं
इन संरचनाओं के कारण गंगा की बाल का अतिरिक्त पानी कुछ समय के लिये इन नहरों और तालाबों में एकत्रित हो जाता था। इस प्रणाली के अवशेष शृंगवेरपुरा में प्राप्त हुए।
पारम्परिक जल संरक्षण प्रणालियों की प्रासंगिकता- जल संचय और प्रबन्धन का चलन हमारे यहाँ सदियों पुराना है।
राजस्थान में खड़ीन, कुंड और नाडी, महाराष्ट्र में बन्धारा और ताल, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बन्धी बिहार में आहर और पइन, हिमाचल में कुहल, तमिलना में एरी, केरल में सुरंगम, जम्म क्षेत्र के काठी इलाके के पोखर, कर्नाटक में कट्टा पानी को सहेजने और एक से दूसरी जगह प्रवाहित करने के कुछ अति प्राचीन साधन थे, जो आज भी प्रचलन में हैं।
पारम्परिक व्यवस्थाएँ उस क्षेत्र की पारिस्थितिकी और संस्कृति की विशिष्ट देन होती है, जिनमें उनका विकास होता है। वे न केवल काल की कसौटी पर खरी उतरी हैं, बल्कि उन्होंने स्थानीय जरूरतों को भी पर्यावरण में तालमेल रखते हुए पूरा किया है। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
आधुनिक व्यवस्थाएँ जहाँ पर्यावरण का दोहन करती हैं. उनकी विपरीत यह प्राचीन व्यवस्थाएँ पारिस्थितिकीय संरक्षण पर जोर देती है। पारम्परिक व्यवस्थाओं को अनन्त काल से साझा मानवीय अनुभवों से लाभ पहंचता रहा है और यही उनकी सबसे बड़ी शक्ति है।
प्रश्न 10. प्रारम्भिक प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति
उत्तर-विद्वानों का मानना है कि प्राचीन भारत में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा हासिल था।
हालांकि कुछ अन्य विद्वानों का नजरिया इसके विपरीत है। पतंजलि और कात्यायन जैसे प्राचीन भारतीय व्याकरणविदों का कहना है कि प्रारम्भिक वैदिक काल में महिलाओं को शिक्षा दी जाती थी।
साम्वेदिक चाएं यह बताती हैं कि महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी और संभवतः उन्हें अपना पति चुनने की भी आजादी थी। BHIC 101 Free Assignment In Hindi
वैदिक काल में “महिलाओं की स्थिति समाज में काफी ऊंची थी और उन्हें अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। वे धार्मिक क्रियाओं में भाग ही नहीं लेती थीं बल्कि क्रियाएं संपन्न कराने वाले पुरोहितों और अपियों का दर्जा भी महें प्राप्त था उस समय महिलाएं धर्म शास्त्रार्थ इत्यादि में पुरुषों की तरह ही भागलेती थी।
उन्हें गृहणी अर्धागिनी कहकर संबोधित किया जाता था पुत्र पुत्री के पालन-पोषण में कोई भेदभाव नहीं किया जाता था।” उपनयन संस्कार और शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार भी स्त्रियों को पुरूषों की भांति समान रूप से प्राप्त था।
तत्कालीन युग में महिलाएं सार्वजनिक जीवन में भाग लेती थी। “अस्पृश्यता, सती प्रथा, पर्दा प्रथा तथा बाल विवाह जैसी कुप्रथा का प्रचलन भी इस युग में नहीं था।
” “महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी, संभवतः उनको अपना जीवन साथी | के चुनाव का पूर्ण अधिकार प्राप्त था।
” “यद्यपि विधवा पुनर्विवाह प्रचलित नहीं था लेकिन विधवाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाता था और उन्हें अपने पति की सम्पत्ति पर अधिकार प्राप्त था।
” यूं कहा जा सकता है कि, स्त्रियां किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से पीछे | नहीं थी। “भारतीय समाज के वैदिक काल में नारी को पुरूषों के समाज में शिक्षा, धर्म, राजनीति और सम्पत्ति के अधिकार एवं सभी | मामलों में समानाधिकार प्राप्त थे।” BHIC 101 Free Assignment In Hindi
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